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________________ पंचम स्थान–प्रथम उद्देश ] [463 पारंचित-सूत्र ___४७--पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गथे साहम्मियं पारंचितं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा१. कुले वसति कुलस्स भेदाए अब्भुट्टिता मवति / 2. गणे वसति गणस्स भेदाए अन्भुट्ठता भवति / 3. हिंसप्पेही / 4. छिद्दप्पेही / 5. अभिक्खणं अभिक्खणं पसिणायतणाई पउंजित्ता भवति / पांच कारणों से श्रमण-निर्गन्थ अपने सार्मिक को पाराञ्चित करता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है / जैसे - 1. जो साधु जिस कुल में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। 2. जो साधु जिस गण में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। 3. जो हिंसाप्रेक्षी होता है (कुल या गण के साधु का घात करना चाहता है)। 4. जो कुल या गण के सदस्यों का एवं अन्य जनों का छिद्रान्वेषण करता है / 5. जो बार-बार प्रश्नायतनों का प्रयोग करता है (47) / विवेचन-अंगुष्ठ, भुजा आदि में देवता को बुलाकर लोगों के प्रश्नों का उत्तर देकर उन्हें चमत्कृत करना, सावध अनुष्ठान के प्रश्नों का उत्तर देना और असंयम के प्रायतनों (स्थानों) का प्रति सेवन करना प्रश्नायतन कहलाता है / सूत्रोक्त पांच कारणों से साधु का वेष छुड़ा कर उसे संघ से पृथक् करना पाराञ्चित प्रायश्चित कहलाता है। उक्त पांच कारणों में से किसी एक-दो, या सभी कारणों से साधु को पाराञ्चित करने की भगवान् की आज्ञा है / व्युद्ग्रहस्थान-सूत्र ४८-पायरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच वग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा१. अग्यरियउवज्झाए णं गणंसि प्राणं वा धारणं वा णो सम्म पउंजित्ता भवति / 2. प्रायरिय उवज्झाए णं गणंसि प्राधारातिणियाए कितिकम्म णो सम्मं पउंजित्ता भवति / 3. पायरियउवझाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले णो सम्ममणुप्प वाइत्ता भवति / 4. पायरियउवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्ममभुट्टित्ता भवति / 5. पायरियउवज्झाए णं गणंसि अणापुच्छियचारी यावि हवइ, णो प्रापुच्छियचारी। आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में पांच व्युद्-ग्रहस्थान (विग्रहस्थान) कहे गये हैं। जैसे१. प्राचार्य और उपाध्याय गण में प्राज्ञा तथा धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। 2. प्राचार्य और उपाध्याय गण में यथारात्निक कृतिकर्म का सम्यक प्रयोग न करें। 3. प्राचार्य और उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों (सूत्र के अर्थ-प्रकारों) को धारण करते हैं--जानते हैं उनकी समय-समय पर गण को सम्यक् वाचना न दें। 4. प्राचार्य और उपाध्याय गण में रोगी और नवदीक्षित साधुओं की वैयावृत्य करने के ___ लिए सम्यक् प्रकार सावधान न रहें, समुचित व्यवस्था न करें। 5. प्राचार्य और उपाध्याय गण को पूछे विना ही अन्यत्र विहार आदि करें, पूछ कर न करें (48) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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