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________________ 462 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 1. ग्लानि-रहित होकर प्राचार्य की वैयावृत्त्य करता हुआ। 2. ग्लानि-रहित होकर उपाध्याय की वैयावृत्त्य करता हुआ। 3. ग्लानि-रहित होकर स्थविर की वैयावृत्त्य करता हुआ / 4. ग्लानि-रहित होकर तपस्वी की वैयावत्य करता या। 5. ग्लानि-रहित होकर ग्लान (रोगी मुनि) की वैयावृत्त्य करता हुआ (44) / ४५-पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा--अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, प्रगिलाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे / पांच स्थानों से श्रमण-निर्गन्थ महान् कर्म-निर्जरा और पर्यवसान वाला होता है / जैसे१. ग्लानि-रहित होकर शैक्ष (नवदीक्षित मुनि) की वैयावृत्य करता हुआ / 2. ग्लानि-रहित होकर कुल (एक प्राचार्य के शिष्य-समूह) की वैयावृत्त्य करता हुआ / 3. ग्लानि-रहित होकर गण (अनेक कुल-समूह) की वैयावृत्त्य करता हुआ / 4. ग्लानि-रहित होकर संघ (अनेक गण-समूह) की वैयावृत्त्य करता हुमा / 5. ग्लानि-रहित होकर साधर्मिक (समान समाचारी वाले) की बयावृत्त्य करता हुआ (45) / बिसंमोग-सूत्र ४६-पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा--१. सकिरियट्ठाणं पडिसेवित्ता भवति / 2. पडिसेवित्ता णो पालोएइ। 3. पालोइत्ता गो पट्टवेति / 4. पट्टवेत्ता णो णिविसति। 5. जाई इमाइं थे राणं ठितिपकरपाइं भवंति ताई प्रतियंचियप्रतियंचिय पडिसेवेति, से इंदऽहं पडिसेवामि कि मंथरा करेस्संति ? पांच स्थानों (कारणों) से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने सार्मिक साम्भोगिक को विसंभोगिक करे तो भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता / जैसे 1. जो सक्रिय स्थान (अशुभ कर्म का बन्ध करने वाले अकृत्य कार्य) का प्रतिसेवन करता है। 2. जो आलोचना करने योग्य दोष का प्रतिसेवन कर आलोचना नहीं करता है। 3. जो आलोचना कर प्रस्थापन (गुरु-प्रदत्त प्रायश्चित्त का प्रारम्भ) नहीं करता है। 4. जो प्रस्थापन कर निर्वेशन (पूरे प्रायश्चित का सेवन) नहीं करता। 5. जो स्थविरों के स्थितिकल्प होते हैं, उनमें से एक के बाद दूसरे का अतिक्रमण कर प्रति सेवना करता है, तथा दूसरों के समझाने पर कहता है-लो, मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूँ, स्थविर मेरा क्या करेंगे? (46) / विवेचन–साधु-मण्डली में एक साथ बैठ कर भोजन और स्वाध्याय आदि के करने वाले साधुनों को 'साम्भोगिक' कहते हैं / जब कोई साम्भोगिक साधु सूत्रोक्त पांच कारणों में से किसी एकदो, या सब ही स्थानों को प्रतिसेवन करता है, तब उसे प्राचार्य साधु-मण्डली से पृथक् कर देते हैं। ऐसे साधु को 'विसम्भोगिक' कहते हैं। उसे विसंभोगिक करते हुए प्राचार्य जिन-प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता, प्रत्युत पालन ही करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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