________________ पंचम स्थान–प्रथम उद्देश ] [ 456 ३६-पंच ठाणाई समणेणं जाव (भगवता, महावीरेणं समणाणं णिगंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा--उक्खित्तचरए, णिक्खित्तचरए, अंतचरए, पंतचरए, लूहचरए // श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं / जैसे 1. उत्क्षिप्तचरक- रांधने के पात्र में से पहले हो बाहर निकाला हुआ आहार ग्रहण करूंगा ऐसा अभिग्रह करने वाला मुनि / 2. निक्षिप्तचरक-यदि गृहस्थ रांधने के पात्र में से आहार दे तो मैं ग्रहण करू, ऐसा अभिग्रह करने वाला मुनि / 3. अन्तचरक-गृहस्थ-परिवार के भोजन करने के पश्चात् बचा हुआ यदि अनुच्छिष्ट आहार मिले, तो मैं ग्रहण करू, ऐसा अभिग्रह करने वाला मुनि / 4. प्रान्तचरक-तुच्छ या बासी आहार लेने का अभिग्रह करने वाला मुनि / 5. रूक्षचरक-सर्व प्रकार के रसों से रहित रूखे ग्राहार के ग्रहण करने का अभिग्रह करने वाला मुनि (36) / ३७-पंच ठाणाइ जाव (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वग्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्याई णिच्चं) अन्भणुण्णाताई भवंति, तं जहाअण्णातचरए, अण्णइलायचरए, मोणचरए, संस?कप्पिए, तज्जातसंसट्ठकप्पिए / पुनः श्रमण भगवान महावीर ने श्रमरण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच (अभिग्रह) स्थान सदा वणित किये हैं, कीत्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं। जैसे 1. अज्ञातचरक-अपनी जाति-कुलादि को बताये विना भिक्षा लेने वाला मुनि / 2. अन्यग्लायक चरक-दूसरे रोगी मुनि के लिए भिक्षा लाने वाला मुनि / 3. मौनचरक--विना बोले मौनपूर्वक भिक्षा लाने वाला मुनि।। 4. संसृष्टकल्पिक भोजन से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से भिक्षा लेने वाला मुनि / 5. तज्जात-संसृष्टकल्पिक–देय द्रव्य से लिप्त हाथ आदि से भिक्षा लेने वाला मुनि (37) / ३८-पंच ठाणाई जाव (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिगंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्च कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अभYण्णाताई भवंति, तं जहाउवणिहिए, सुद्ध सहिए, संखादत्तिए, दिट्ठलाभिए, पुट्ठलाभिए / पुनः श्रमग भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित किये हैं, कोत्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं। जैसे 1. औपनिधिक-अन्य स्थान से लाये और समीप रखे आहार को लेने वाला भिक्षुक / 2. शुद्ध षणिक-निर्दोष आहार की गवेषणा करने वाला भिक्षुक / 3. संख्यादत्तिक–सीमित संख्या में दत्तियों का नियम करके आहार लेने वाला भिक्षुक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org