________________ 458 ] [स्थानाङ्गसूत्र अभ्यनुज्ञात-सूत्र ३४-पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वणिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चमभणुण्णाताई भवंति, त जहा-खंती, मुत्ती, प्रज्जवे, मद्दवे, लाघवे। श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वणित किये हैं, कीत्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं। जैसे 1. क्षान्ति (क्षमा) 2. मुक्ति (निर्लोभता), 3. आर्जव (सरलता) 4. मार्दव (मृदुता) और लाघव (लघुता) (34) / ३५–पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं जाव (समणाणं णिग्गंथाण णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुइयाई णिच्छ पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा-सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे / श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वणित किये हैं, कीत्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये है / जैसे-- 1. सत्य, 2. संयम, 3. तप, 4. त्याग और 5. ब्रह्मचर्य (35) / विवेचन-यति-धर्म नाम से प्रसिद्ध दश धर्मों का निर्देश यहाँ पर दो सूत्रों में किया गया है और दशवें स्थान में उनका वर्णन श्रमणधर्म के रूप में किया गया है। दोनों ही स्थानों के क्रम में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र-वणित दश धर्मों के क्रम में तथा नामों में भी कुछ अन्तर है। जो इस प्रकार हैस्थानाङ्ग-सम्मत-दश श्रमण धर्म तत्त्वार्थ सूत्रोक्त दशधर्म 1. क्षान्ति 1. क्षमा 2. मुक्ति 2. मार्दव 3. आर्जव 3. आर्जव 4. मार्दव 4. शौच 5. लाघव 5. सत्य 6. सत्य 6. संयम 7. संयम 7. तप 8. तप 8. त्याग 6. त्याग 6. आकिंचन्य 10. ब्रह्मचर्यवास 10. ब्रह्मचर्य नाम और क्रम में किंचित् अन्तर होने पर भी अर्थ में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org