________________ पंचम स्थान-प्रथम उद्देश ] [ 457 किन्तु पांचों शरीर एक साथ कभी भी किसी जीव के नहीं पाये जाते क्योंकि वैक्रिय और आहारक शरीर एक जीव के एक साथ नहीं होते हैं। तीर्थभेद-सूत्र ३२-पंचहि ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, त जहा-दुप्राइक्वं, दुविभज्ज, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणचरं / प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर जिनों के शासन में पांच स्थान दुर्गम (दुर्बोध्य) होते हैं। जैसे१. दुराख्येय-धर्मतत्त्व का व्याख्यान करना दुर्गम होता है / 2. दुर्विभाज्य-तत्त्व का नय-विभाग से समझाना दुर्गम होता है। 3. दुर्दर्श-तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना दुर्गम होता है। 4. दुस्तितिक्ष-उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना दुर्गम होता है / 5. दुरनुचर-धर्म का आचरण करना दुर्गम होता है (32) / विवेचन-प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु (सरल) और जड़ (अल्प या मन्दज्ञानी) होते हैं, इसलिए उनको धर्म का व्याख्यान करना, समझाना आदि बड़ा दुर्गम (कठिन) होता है / अन्तिम तीर्थकर के समय के साधु वक्र (कुटिल) और जड़ होते हैं, इसलिए उनको भी तत्त्व का समझाना आदि दुर्गम होता है / जब धर्म या तत्त्व समझेंगे ही नहीं, तब उसका आचरण क्या करेंगे ? प्रथम तीर्थकर के समय के परुष अधिक सकमार होते हैं. अतः उन्हें परीषहादि का सहना कठिन होता है और अन्तिम तीर्थंकर के समय के पुरुष चंचल मनोवृति वाले होते हैं। और चित्त की एकाग्रता के बिना न परोषहादि सहन किये जा सकते हैं और न धर्म का प्राचरण या परिपालन ही ठीक हो सकता है। ३३--पंचहि ठाणेहि मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गमं भवति, त जहा-सुप्राइक्खं, सुविभज्ज, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरणुचरं / मध्यवर्ती (बाईस) तीर्थंकरों के शासन में पांच स्थान सुगम (सुबोध्य) होते हैं / जैसे१. स्वाख्येय-धर्मतत्त्व का व्याख्यान करना सुगम होता है / 2. सुविभाज्य-तत्त्व का नय-विभाग से समझाना सुगम होता है / 3. सुदर्श-तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना सुगम होता है। 4. सुतितिक्ष-उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना सुगम होता है / 5. स्वनुचर-धर्म का आचरण करना सुगम होता है / विवेचन-मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय के पुरुष ऋजु (सरल) और प्राज्ञ (बुद्धिमान्) होते हैं, अतः उनको धर्मतत्त्व का समझाना भी सरल होता है और परीषहादि का सहन करना और धर्म का पालन करना भी आसान होता है (33) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org