________________ 454] [स्थानाङ्गसूत्र सेसं तहेव / इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि जाव (केवलवरणाणदसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए) जाव जो खंभाएज्जा। पांच कारणों से उत्पन्न होता हुमा केवलवर-ज्ञान-दर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता / जैसे 1. पृथ्वी को छोटी या अल्पजीव वाली देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता। 2. कुथु आदि क्षुद्र जीव-राशि से भरी हुई पृथ्वी को देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता। 3. बड़े-बड़े महोरगों के शरीरों को देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता। 4. महधिक, महाद्य तिक, महानुभाव, महान यशस्वी, महान् बलशाली और महान् सुख वाले देवों को देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता। 5. पुरों में, ग्रामों में, आकरों में, नगरों में, खेटों में, कर्वटों में, मडम्बों में, द्रोणमुखों में, पत्तनों में, आश्रमों में, संबाधों में, संनिवेशों में, शृगाटकों, तिराहों, चौकों, चौराहों, चौमुहानों और छोटे-बड़े मार्गों में, गलियों में, नालियों में, श्मशानों में, शून्य गहों में, गिरिकन्दराओं में, शान्तिगृहों में, शैल-गृहों में, उपस्थान-गहों में और भवन-गृहों में दबे हुए एक से एक बड़े महानिधानों को जिनके कि मार्ग प्रायः नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत विस्मृतप्रायः हो चुके हैं, और जिनके उत्तराधिकारी कोई नहीं हैं-देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में विचलित नहीं होता (22) / ___ इन पांच कारणों से उत्पन्न होता हुआ केवल वर-ज्ञान-दर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता। विवेचन--पूर्व सूत्र में जो पांच कारण अवधि ज्ञान-दर्शन के उत्पन्न होते-होते स्तम्भित होने के बताये गये थे, वे ही पांच कारण यहां केवल ज्ञान-दर्शन के उत्पन्न होने में बाधक नहीं होते / इसका कारण यह है कि अवधि ज्ञान तो हीन संहनन और हीन सामर्थ्य वाले मनुष्यों को भी उत्पन्न हो सकता है, अत: वे उक्त पांच कारणों में से किसी एक भी कारण के उपस्थित होने पर अपने उपयोग से चलविचल हो सकते हैं। किन्तु केवल ज्ञान और केवल दर्शन तो वज्रर्षभनाराचसंहनन के, उसमें भी जो घोरातिधोर परीषह और उपसर्गों से भी चलायमान नहीं होता और जिसका मोहनीय कर्म दशव गुणस्थान में ही क्षय हो चुका है, अतः जिसके विस्मय, भय और लोभ का कोई कारण ही शेष नहीं रहा है, ऐसे परमवीतरागी क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान वाले पुरुष को उत्पन्न होता है, अत: ऐसे परम धोरवीर महान् साधक के उक्त पांच कारण तो क्या, यदि एक से एक बढ़ चढ़कर सहस्रों विघ्न-बाधाओं वाले कारण एक साथ उपस्थित हो जावें, तो भी उत्पन्न होते हुए केवलज्ञान और केवलदर्शन को नहीं रोक सकते हैं। शरीर-सूत्र २३-णेरइयाणं सरीरगा पंचवण्णा पंचरसा पण्णत्ता, त जहा-किण्हा जाव (णीला, लोहिता, हालिद्दा), सुकिल्ला / तित्ता, जाव (कड्या, कसाया, अंबिला), मधुरा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org