________________ पंचम स्थान-प्रथम उद्देश ] [ 453 को देखने से भयभीत भी हो सकता है और भूमिगत खजानों को देखकर के वह लोभ से भी अभिभूत हो सकता है। इन में से किसी एक-दो या सभी कारणों के सहसा उपस्थित होने पर ध्यानावस्थित व्यक्ति का चित्त चलायमान होना स्वाभाविक है। यदि-वह उस समय चल-विचल न हो तो तत्काल उसके विशिष्ट अतिशय सम्पन्न ज्ञान-दर्शनादि उत्पन्न हो जाते हैं / और यदि वह उस समय विस्मयादि कारणों में से किसी भी एक-दो, या सभी के निमित्त से चल-विचल हो जाता है, तो वे उत्पन्न होते हुए भी रुक जाते है–उत्पन्न नहीं होते। यही बात आगे के सूत्र में केवल ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति के विषय में भी जानना चाहिए। सूत्रोक्त ग्राम-नगरादि का अर्थ दूसरे स्थान के सूत्र 360 के विवेचन में किया जा चुका है। जो शृगाटक आदि नवीन शब्द आये हैं। उनका अर्थ और आकार इस प्रकार है 1. शृगाटक-सिंघाड़े के ग्राकार वाला तीन मार्गों का मध्य भाग A / 2. त्रिकपथ-तिराहा, तिगड्डा--जहां पर तीन मार्ग मिलते हैं / चतुष्कपथ-चौराहा, चौक-जहां पर चार मार्ग मिलते हैं / 4. चतुर्मुख-चौमुहानी-जहां पर चारों दिशाओं के मार्ग निकलते हैं + / 5. पथ-मार्ग, गली आदि / 6. महापथ-राजमार्ग-चौड़ा रास्ता, मेन रोड / 7. नगर-निर्द्ध मन-नगर की नाली, नाला अादि / 8. शान्तिगृह-शान्ति, हवन आदि करने का घर / 6. शैलगह-पर्वत को काट कर या खोद कर बनाया मकान / 10. उपस्थान गृह-सभामंडप / 11. भवनगृह-नोकर-चाकरों के रहने का मकान / कहीं-कहीं चतुर्मुख का अर्थ चार द्वार वाले देवमन्दिर आदि भी किया गया है। इसी प्रकार अन्य शब्दों के अर्थ में भी कुछ व्याख्या-भेद पाया जाता है। प्रकृत में मूल अभिप्राय इतना ही है कि अवधि ज्ञान-दर्शन जितने क्षेत्र की सीमा वाला होता है, उतने क्षेत्र के भीतर की रूपी वस्तुओं का उसे प्रत्यक्ष दर्शन होता है। २२-पंचहि ठाणेह केवलवरणाणदंसणे समुपज्जिउकामे तपढमयाए णो खंभाएज्जा, तं जहा 1. अप्पभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। 2. सेसं तहेव जाव (कुथुरासिभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। 3. महतिमहालयं वा महोरगसरोरं पासित्ता तप्पढमयाए गो खंभाएज्जा / 4. देवं वा महिड्डियं महज्जुइयं महाणुभागं महायसं महाबलं महासोक्खं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा / 5. (पुरेसु वा पोराणाई उरालाई महतिमहालयाई महाणिहाणाई पहीणसामियाई पहीणसे उयाई पहीणगुत्तागाराई उच्छिण्णसामियाई उच्छिण्णसेउयाई उच्छिण्णगुत्तागाराई जाई इमाई गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु सिंघाडग-तिग-च उक्क-चच्चर-चउम्मह-महापहपहेसु णगर-णिद्धमणेसु सुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदर-संतिसेलोवट्ठावण) भवण-गिहेसु सण्णिविखत्ताई चिट्ठति, ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org