SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 452] [ स्थानाङ्गसूत्र इमाई गामागर-णगर-खेड-कबड-मडंब-दोणमहपट्टणासम-संवाह-सण्णिवेसेतु सिंघाडगतिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मह-महापह-पहेसु णगर-णिद्धमणेसु सुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदरसंति-सेलोवट्टावण-भवण-गिहेसु संणिविखत्ताइ चिट्ठति, ताई वा पासित्ता तप्पढमताए खंभाएज्जा। इच्चेतेहि पंचहि ठाणेहि प्रोहिदसणे समप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए खंभाएज्जा। पांच कारणों से अवधि-ज्ञान-] दर्शन उत्पन्न होता हुआ भी अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित (क्षुब्ध या चलायमान) हो जाता है। जैसे 1. पृथ्वी को छोटी या अल्पजीव वाली देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है। 2. कुथु जैसे क्षुद्र-जीवराशि से भरी हुई पृथ्वी को देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है। 3. बड़े-बड़े महोरगों--(सांपों) के शरीरों को देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है। 4. महधिक, महाद्युतिक, महानुभाग, महान् यशस्वी, महान् बलशाली और महान् सुख वाले देवों को देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणो में हो स्तम्भित हो जाता है। 5. पुरों में, ग्रामों में, आकरों में, नगरों में, खेटों में, कर्वटों में, मडम्बों में, द्रोणमुखों में, पत्तनों में, पाश्रमों में, संबाधों में, सन्निवेशों में, नगरों के शृगाटकों, तिराहों, चौकों, चौराहों, चौमुहानों और छोटे-बड़े मार्गों में, गलियों में, श्मशानों में, शून्य गृहों में, गिरिकन्दराओं में, शान्ति गृहों में, शैलगृहों में, उपस्थानगृहों और भवन-गृहों में दबे हुए एक से एक बड़े महानिधानों को (धन के भण्डारों या खजानों को) जिनके कि स्वामी, मर चुके हैं, जिनके मार्ग प्रायः नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत विस्मृतप्रायः हो चुके हैं और जिनके उत्तराधिकारी कोई नहीं हैं-देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है। इन पाँच कारणों से उत्पन्न होता हा अवधि-ज्ञान-]-दर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है। विवेचन --विशिष्ट ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति या विभिन्न ऋद्धियों की प्राप्ति एकान्त में ध्यानावस्थित साधु को होती है / उस अवस्था में सिद्ध या प्राप्त ऋद्धि का तो पता उसे तत्काल नहीं चलता है, किन्तु विशिष्ट ज्ञान-दर्शन के उत्पन्न होते ही सूत्रोक्त पांच कारणों में से सर्वप्रथम पहला ही कारण उसके सामने उपस्थित होता है। ध्यानावस्थित व्यक्ति की नासाग्र-दृष्टि रहती है, अतः उसे सर्वप्रथम पृथ्वीगत जीव हो दृष्टिगोचर होते हैं / तदनन्तर पृथ्वी पर विचरने वाले कुन्थु आदि छोटे-छोटे जन्तु विपुल परिमाण में दिखाई देते हैं। तत्पश्चात् भूमिगत बिलों आदि में बैठे सांपराज-नागराज आदि दिखाई देते हैं। यदि उसके अवधिज्ञानावरण-अवधिदर्शनावरण कर्म का और भी विशिष्ट क्षयोपशम हो रहा है तो उसे महावैभवशाली देव दृष्टिगोचर होते हैं और ग्राम-नगरादि की भूमि में दबे हुए खजाने भी दिखने लगते हैं। इन सब को देख कर सर्वप्रथम उसे विस्मय होता है, कि यह मैं क्या देख रहा हूँ ! पुन: जीवों से व्याप्त पृथ्वी को देख कर करणाभाव भी जागृत हो सकता है। बड़े-बड़े सांपों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy