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________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश ] [436 __ विवेचन–हिंसादि पांचों पापों के सर्वथा त्याग करने को संयम कहते हैं। उसके दो भेद हैंसरागसंयम और वीतरागसंयम / जहाँ तक सूक्ष्म राग भी रहता है-ऐसे दशवें गुणस्थान तक का संयम सरागसंयम कहलाता है और उसके उपरिम गुण-स्थानों का संयम वीतरागसंयम कहा जाता है। यत: वीतरागसंयम से देवायष्क कम का भी बन्ध या उपार्जन नहीं होता है, अतः यहाँ पर सरागसंयम को देवायु के बन्ध का कारण कहा गया है / यद्यपि सरागसंयम छठे गुणस्थान से लेकर दशवें गुणस्थान तक होता है, किन्तु सातवें गुण स्थान से ऊपर के संयमी देवायु का बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि वहाँ आयु का बन्ध ही नहीं होता। अत: छठे-सातवें गुणस्थान का सरागसंयम ही देवायु के बन्ध का कारण होता है। श्रावक के अणुव्रत, गुणवत और शिक्षावत रूप एकदेशसंयम को संयमासंयम कहते हैं। यह पंचम गुणस्थान में होता है। त्रसजीवों की हिंसा के त्याग की अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती के संयम हैं और स्थावरजीवों की हिंसा का त्याग न होने से असंयम है, अत: उसके अांशिक या एकदेशसंयम को संयमासंयम कहा जाता है। मिथ्थात्वी जीवों के तप को बालतप कहते हैं। पराधीन होने से भूख-प्यास के कष्ट सहन करना, पर-वश ब्रह्मचर्य पालना, इच्छा के विना कर्म-निर्जरा के कारणभूत कार्यों को करना अकामनिर्जरा कहलाती है / इन चार कारणों में से आदि के दो कारण अर्थात् सराग-संयम और संयमासंयम वैमानिक-देवायु के कारण हैं और अन्तिम दो कारण भवनत्रिक-(भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क) देवों में उत्पत्ति के कारण जानना चाहिए। यहाँ इतना और विशेष ज्ञातव्य है कि यदि जीव के आयुर्बन्ध के विभाग का अवसर है, तो उक्त कार्यों को करने से उस-उस आयुष्क-कर्म का बन्ध होगा। यदि विभाग का अवसर नहीं है तो उक्त कार्यों के द्वारा उस-उस गति नामकर्म का बन्ध होगा। वाद्य-नृत्यावि-सूत्र ६३२-चउबिहे वज्जे पण्णत्ते, तं जहा–तते, वितते, घणे, झुसिरे / वाद्य (बाजे) चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. तत (वीणा आदि) 2. वितत (ढोल आदि) 3. घन (कांस्य ताल आदि) 4. शुषिर (बांसुरी आदि) (632) / ६३३-चउविहे गट्टपण्णत्ते, तं जहा—अंचिए, रिभिए, प्रारभडे, भसोले। नाट्य (नृत्य) चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. अंचित नाटय--ठहर-ठहर कर या रुक-रुक कर नाचना / 2. रिभित नाटय--संगीत के साथ नाचना / 3. प्रारभट नाट्य--संकेतों से भावाभिव्यक्ति करते हुए नाचना / 4. भषोल नाटय--झुक कर या लेट कर नाचना (633) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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