________________ 438] [ स्थानाङ्गसूत्र गया है / पूर्व के दो सूत्रों में उत्पत्ति का अर्थ शरीर का प्रारम्भ करने से है / तथा तीसरे व चौथे सूत्र में कहे गये निर्वृत्ति पद का अभिप्राय शरीर को निष्पत्ति या पूर्णता से है। धर्मद्वार-सूत्र ६२७–चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे / धर्म के चार द्वार कहे गये हैं / जैसे१. क्षान्ति (क्षमाभाव) 2. मुक्ति (निर्लोभिता) 3. प्रार्जव (सरलता) 4. मार्दव (मृदुता) (627) / आयुर्वन्ध-सूत्र ६२८-चउहि ठाणेहि जीवा जेरइयाउयत्ताए कम्म पकरेंति, तं जहा-महारंभताए, महापरिग्गयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं / चार कारणों से जीव नारकायुष्क योग्य कर्म उपार्जन करते हैं / जैसे-- 1. महा आरम्भ से, 2. महा परिग्रह से, 3. पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से, 4. कुणप आहार से (मांसभक्षण करने से) (628) / ६२६-चउहि ठाणेहि जीवा तिरिक्खजोणिय [पाउय ? ]ताए कम्मं पगरेंति, त जहामाइल्लताए, णियडिल्लताए, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं / चार कारणों से जीव तिर्यगायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं / जैसे१. मायाचार से, 2. निकृतिमत्ता से अर्थात् दूसरों को ठगने से), 3. असत्य वचन से, 4. कूटतुला-कूट-मान से(घट-बढ़ तोलने-नापने से) (626) / ६३०-चहि ठा!ह जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-पगतिभद्दताए, पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए। चार कारणों से जीव मनुष्यायष्क कर्म का उपार्जन करते हैं। जैसे१. प्रकृति-भद्रता से, 2. प्रकृति-विनीतता से, 3. सानुक्रोशता से (दयालुता और सहृदयता से) 4. अमत्सरित्व से (मत्सर-भाव न रखने से) (630) / ६३१-चउहि ठाणेहि जोवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए। चार कारणों से जीव देवायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं / जैसे--- 1. सरागसंयम से, 2. संयमासंयम से, 3. बाल तप करने से, 4. अकामनिर्जरा से (631) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org