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________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश] [ 437 चार कारणों से पुरुष दूसरों के विद्यमान गुणों का भी विनाश (अपलाप) करता है / जैसे१. क्रोध से, 2. प्रतिनिवेश से दूसरों की पूजा-प्रतिष्ठा न देख सकने से / 3. अकृतज्ञता से (कृतघ्न होने से) 4. मिथ्याभिनिवेश (दुराग्रह) से (621) / ६२२-चउहि ठाणेहि असंते गुणे दोवेज्जा, त जहा-अब्भासवत्तियं, परच्छंदाणुवत्तियं, कज्जहेउ, कतपडिकतेति बा। चार कारणों से पुरुष दूसरों के अविद्यमान गुणों का भी दीपन (प्रकाशन) करता है / जैसे१. अभ्यासवृत्ति से-गुण-ग्रहण का स्वभाव होने से / 2. परच्छन्दानुवृत्ति से दूसरों के अभिप्राय का अनुकरण करने से / 3. कार्य हेतु से अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूसरों को अनुकूल बनाने के लिए। 4. कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करने से (622) / शरीर-सूत्र ६२३–णेरइयाणं चहि ठाणेहि सरीरुप्पत्ती सिया, त जहा–कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। चार कारणों से नारक जीवों के शरीर की उत्पत्ति होती है। जैसे१. क्रोध से, 2. मान से, 3. माया से, 4. लोभ से (623) / ६२४---एवं जाव वेमाणियाणं / इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डकों के जीवों के शरीरों की उत्पत्ति चार-चार कारणों से होती है (624) / ६२५---रइयाणं चउट्ठाणणिन्वत्तिते सरीरे पण्णत्ते, त जहा--कोहणिवत्तिए, जाव (माणणिवत्तिए, मायाणिवत्तिए), लोभणिव्वत्तिए / नारक जीवों के शरीर चार कारणों से निर्वृत्त (निष्पन्न) होते हैं। जैसे१. क्रोध-जनित कर्म से, 2. मान-जनित कर्म से, 3. माया-जनित कर्म से, 4. लोभ-जनित कर्म से (625) / ६२६--एवं जाव वेमाणियाणं / इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों के शरीरों की निर्वृति या निष्पत्ति चार कारणों से होती है (626) / विवेचन---क्रोधादि कषाय कर्म-बन्ध के कारण हैं और कर्म शरीर की उत्पत्ति का कारण है, इस प्रकार कारण के कारण में कारण का उपचार कर क्रोधादि को शरीर की उत्पत्ति का कारण कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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