________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश ] [ 435 2. मुक्त और अमुक्तरूप-कोई पुरुष परिग्रहादि से मुक्त होता है, किन्तु उसका रूप अमुक्त के ___समान होता है, जैसे गृहस्थ-दशा में महावीर स्वामी / 3. अमुक्त और मुक्तरूप—कोई पुरुष परिग्रहादि से अमुक्त होकर के भी मुक्त के समान ___ बाह्य रूपवाला होता है, जैसे धूर्त साधु / / 4. अमुक्त और अमुक्तरूप—कोई पुरुष अमुक्त होता है और अमुक्त के समान ही रूपवाला होता है, जैसे गृहस्थ (613) / गति-आगति-सूत्र ६१४-पंचिदियतिरिक्खजोणिया चउगइया चउप्रागइया पण्णत्ता, त जहा--पंचिदियतिरिक्खजोणिए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणे णेरइएहितो वा, तिरिक्खजोणिएहिंतो वा, मणुस्सेहितो बा, देवेहितो वा उववज्जेज्जा। से चेव णं से पंचिदियतिरिक्खजोणिए पंचिदियतिरिक्खजोणियत्तं विप्पजहमाणे जेरइयत्ताए वा, जाव (तिरिक्खजोणियत्ताए वा, मणुस्सत्ताए वा), देवत्ताए वा गच्छेज्जा। पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव (मर कर) चारों गतियों में जाने वाले और चारों गतियों से पाने (जन्म लेने वाले कहे गये हैं / जैसे 1. पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में उत्पत्र होता हुआ नारकियों से या तिर्यग्योनिकों से, या मनुष्यों से या देवों से आकर उत्पन्न होता है। 2. पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनि को छोड़ता हुआ (मर कर) नारकियों ___ में, तिर्यग्योनिकों में, मनुष्यों में या देवों में जाता (उत्पन्न होता है) (614) / ६१५–मणस्सा चउगइया चउग्रागइमा (पण्णत्ता, तं जहा-मणुस्से मणस्सेसु उववज्जमाणे रइएहितो वा, तिरिक्खजोणिएहितो वा, मणुस्सेहितो वा, देवेहितो बाउववज्जेज्जा। से चेव णं से मणुस्से मणुस्सत्तं विघ्पजहमाणे पेरइयत्ताए वा, तिरिक्खजोणियत्ताए वा, मणुस्सत्ताए वा, देवत्ताए वा गच्छेज्जा)। मनुष्य चारों गतियों में जाने वाले और चारों गतियों में आने वाले कहे गये हैं। जैसे-- 1, मनुष्य मनुष्यों में उत्पन्न होता हुआ नारकियों से, या तिर्यंग्योनिको से, या मनुष्यों से, __या देवों से आकर उत्पन्न होता है। 2. मनुष्य मनुष्यपर्याय को छोड़ता हुआ नारकियों में, या तिर्यग्योनिकों में, या मनुष्यों ___ में, या देवों में उत्पन्न होता है (615) / संयम-असंयम-सूत्र ६१६–बेइंदिया जं जीवा असमारभमाणस्स चउम्विहे संजमे कज्जति, तं जहा-जिब्भामयातो सोक्खातो अववरोवित्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खणं असंजोगेत्ता भवति, फासामयातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, फासामएणं दुक्खेणं असंजोगित्ता भवति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org