________________ चतुथ स्थान-चतुर्थ उद्देश [ 433 अथवा सर्वजीव चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. स्त्रीवेदी, 2. पुरुषवेदी, 3. नपुसकवेदी, 4. अवेदीजीव / अथवा सर्व जीव चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. चक्षुदर्शनी, 2. अचक्षुदर्शनी, 3. अवधिदर्शनी, 4. केवलदर्शनी जीव / अथवा सर्वजीव चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. संयत, 2. असंयत, 3. संयतासंयत, 4. नोसंयत, नोअसंयत जीव (606) / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित चौथे भेद का अर्थ इस प्रकार है-- 1. अयोगी जीव--चौदहवें गुणस्थानवर्ती और सिद्ध जीव / 2. अवेदी जीव-नौवें गुणस्थान के अवेदभाग से ऊपर के सभी गुणस्थान वाले और सिद्ध जीव / 3. नोसंयत, नोअसंयत जीव-सिद्ध जीव / मित्र-अमित्र-सूत्र ६१०–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा–मित्ते णाममेगे मित्ते, मित्ते णाममेगे अमित्ते, अमित्ते णाममेगे मित्ते, अमित्ते णाममेगे अमित्त / पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. मित्र और मित्र-कोई पुरुष व्यवहार से भी मित्र होता है और हृदय से भी मित्र होता है। 2. मित्र और अमित्र-कोई पुरुष व्यवहार से मित्र होता है, किन्तु हृदय से मित्र नहीं होता। 3. अमित्र और मित्र--कोई पुरुष व्यवहार से मित्र नहीं होता, किन्तु हृदय से मित्र होता है। 4. अमित्र और अमित्र-कोई पुरुष न व्यवहार से मित्र होता है और न हृदय से मित्र होता है। विवेचन---इस सूत्र द्वारा प्रतिपादित चारों प्रकार के मित्रों की व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है / जैसे१. कोई पुरुष इस लोक का उपकारी होने से मित्र है और परलोक का भी उपकारी होने से मित्र है / जैसे-सद्गुरु आदि / 2. कोई इस लोक का उपकारी होने से मित्र है, किन्तु परलोक के साधक संयमादि का पालन न करने देने से अमित्र है / जैसे पत्नी आदि / 3. कोई प्रतिकूल व्यवहार करने से अमित्र है, किन्तु वैराग्य-उत्पादक होने से मित्र है। जैसे कलहकारिणी स्त्री आदि / 4. कोई प्रतिकूल व्यवहार करने से अमित्र है और संक्लेश पैदा करने से दुर्गति का भी ___कारण होता है अत: फिर भी अमित्र है। पूर्वकाल और उत्तरकाल की अपेक्षा से भी चारों भंग घटित हो सकते हैं / जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org