________________ 432] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. कार्मिकी मति–कार्य करते-करते बढ़ने वाली बुद्धि-कुशलता। 4. पारिणामिकी मति–अवस्था---उम्र बढ़ने के साथ बढ़ने वाली बुद्धि (606) / मति-सूत्र ६०७-चउम्विहा मई पण्णत्ता, तं जहा–उग्गहमती, ईहामती, प्रवायमती, धारणामती / अहवा–चउब्विहा मतो पण्णता, तं जहा-अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगसमाणा, सागरोदगसमाणा / पुनः मति चार प्रकार की कही गई है / जैसे१. अवग्रहमति-वस्तु के सामान्य धर्म-स्वरूप को जानना / 2. ईहामति-अवग्रह से गृहीत वस्तु के विशेष धर्म को जानने की इच्छा करना। 3. अवायमति-उक्त वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चय होना। 4. धारणामति-कालान्तर में भी उस वस्तु का विस्मरण न होना। अथवा–मति चार प्रकार की कही गई है / जैसे१. अरंजरोदकसमाना--अरंजर (घट) के पानी के समान अल्प बुद्धि / 2. विदरोदकसमाना-विदर (गड्ढा, खंसी) के पानी के समान अधिक बुद्धि / 3. सर-उदकसमाना-सरोवर के पानी के समान बहुत अधिक बुद्धि / 4. सागरोदकसमाना समुद्र के पानी के समान असीम विस्तीर्ण बुद्धि (607) जोब-सूत्र ६०८-चउम्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा–रइया तिरिक्खजोगिया, मणुस्सा , देवा। संसारी जीव चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. नारक 2. तिर्यग्योनिक 3. मनुष्य 4. देव (608) ६०६--चउब्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, अजोगी। अहवा-चउविवहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा---इस्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, णपुंसकवेयगा, अवेयगा। अहवा-चउम्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-चक्खुदंसणी, प्रचक्खुदंसणी, अोहिदंसणी, / केवलदसणी। अहवा-चउम्विहा सन्धजीवा पण्णत्ता, तं जहा—संजया, असंजया, संजयासंजया, णोसंजया णोअसंजया। सर्वजीव चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. मनोयोगी 2. वचनयोगी 3. काययोगी 4. अयोगी जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org