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________________ [431 चतुर्थ स्थान--चतुर्थ उद्देश ] विवेचन-उक्त चारों भंगों का खुलासा इस प्रकार है 1. कोई जीव सातावेदनीय आदि पुण्यकर्म को बांधता है और उसका विपाक रूप शुभ फलसुख को भोगता है। 2. कोई जीव पहले सातावेदनीय आदि शुभकर्म को बांधता है और पीछे तीव्र कषाय से प्रेरित होकर असातावेदनीय आदि अशुभकर्म का तीव्र बन्ध करता है, तो उसका पूर्व-बद्ध सातावेदनीयादि शुभकर्म भी असातावेदनीयादि पापकर्म में संक्रान्त (परिणत) हो जाता है, अतः वह अशुभ विपाक को देता है। 3. कोई जीव पहले अतातावेदनीय आदि अशुभकर्म को बांधता है, किन्तु पीछे शुभ परिणामों की प्रबलता से सातावेदनीय आदि उत्तम अनुभाग वाले कर्म को बांधता है। ऐसे जीव का पूर्व-बद्ध अशुभ कर्म भी शुभ कर्म के रूप में संक्रान्त या परिणत हो जाता है, अतएव वह शुभ विपाक को देता है। 4. कोई जीव पहले पापकर्म को बांधता है, पीछे उसके विपाक रूप अशुभफल को ही भोगता है। उक्त चार प्रकारों में प्रथम और चतुर्थ प्रकार तो बन्धानुसारी विपाक वाले हैं। तथा द्वितीय और तृतीय प्रकार संक्रमण-जनित परिणाम वाले हैं / कर्म-सिद्धान्त के अनुसार मूल कर्म, चारों आयु कर्म, दर्शन मोह और चारित्रमोह का अन्य प्रकृति रूप संक्रमण नहीं होता / शेष सभी पुण्य-पाप रूप कर्मों का अपनी मूल प्रकृति के अन्तर्गत परस्पर में परिवर्तन रूप संक्रमण हो जाता है / पुनः कर्म चार प्रकार का कहा गया है / जैसे-- 1. प्रकृतिकर्म--ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों को रोकने का स्वभाव / 2. स्थितिकर्म--बंधे हए कर्मों की काल-मर्यादा / 3. अनुभावकर्म-बंधे हुए कर्मों की फलदायक शक्ति / 4. प्रदेशकर्म--कर्म-परमाणुओं का संचय (604) / संघ-सूत्र ६०५-चउम्विहे संघे पण्णत्ते, तं जहा--समणा, समणीयो, सावगा, सावियायो / संघ चार प्रकार का कहा गया है / जैसे--- 1. श्रमण संघ, 2. श्रमणी संघ, 3. श्रावक संघ, 4. श्राविका संघ (605) / बुद्धि-सूत्र ६०६-च उबिहा बुद्धी पण्णत्ता, तं जहा-उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, परिणामिया। मति चार प्रकार को कही गई है / जैसे१. औत्पत्तिकी मति-पूर्व अदृष्ट, अश्रु त और अज्ञात तत्त्व को तत्काल जानने वाली प्रत्युत्पन्न मति या अतिशायिनी प्रतिभा / 2. वैनयिकी मति--गुरुजनों की विनय और सेवा शुश्रूषा से उत्पन्न बुद्धि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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