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________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश ] [415 अपध्वंस के चार प्रकार बताये गये हैं। चारित्र का पालन करते हुए भी व्यक्ति जिस प्रकार की हीन भावना में निरत रहता है, वह उस प्रकार के हीन देवों में उत्पन्न हो जाता है। ५६७-चहि ठाणेहि जीवा प्रासुरत्ताए कम्मं पगरेंति, त जहा-कोबसीलताए, पाहुडसोलताए, संसत्ततवोंकम्मेणं णिमित्ताजीवयाए। चार स्थानों से जीव असुरत्व कर्म (असुरों में जन्म लेने योग्य कर्म) का उपार्जन करते हैं / जैसे 1. कोपशीलता से-~~चारित्र का पालन करते हुए क्रोधयुक्त प्रवृत्ति से।। 2. प्राभृतशीलता से-चारित्र का पालन करते हुए कलह-स्वभावी होने से। 3. संसक्त तपःकर्म से-पाहार, पात्रादि की प्राप्ति के लिए तपश्चरण करने से / 4. निमित्ताजीविता से-हानि-लाभ आदि-विषयक निमित्त बताकर अाहारादि प्राप्त करने से (567) / ५६५-चउहि ठार्गाह जीवा प्राभिप्रोगत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-अत्तुक्कोसेणं, परपरिवाएणं, भूतिकम्मेणं, कोउयकरणेणं / चार स्थानों से जीव आभियोगत्व कर्म का उपार्जन करते हैं / जैसे१. आत्मोत्कर्ष से अपने गुणों का अभिमान करने तथा प्रात्मप्रशंसा करने से / 2. पर-परिवाद से-~-दूसरों की निन्दा करने और दोष कहने से / 3. भूतिकर्म से-ज्वर, भूतावेश आदि को दूर करने के लिए भस्म आदि देने से / 4. कौतुक करने से सौभाग्यवृद्धि आदि के लिए मन्त्रित जलादि के क्षेपण करने से (568) / ५६६~-चउहि ठाणेहि जीवा सम्मोहत्ताए कम्मं पगरेंति, त जहा-उम्मग्गदेसणाए, मग्गंतराएणं, कामासंसप्पश्रोगेणं, मिज्जाणियाणकरणेणं / चार स्थानों से जीव सम्मोहत्व कर्म का उपार्जन करते हैं / जैसे१, उन्मार्गदेशना से-जिन-वचनों से विरुद्ध मिथ्या मार्ग का उपदेश देने से / 2. मार्गान्तराय से ----मुक्ति के मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए अन्तराय करने से / 3. कामाशंसाप्रयोग से-तपश्चरण करते हुए काम-भोगों की अभिलाषा रखने से। 4. भिध्यानिन्दानकरण से-तीव्र भोगों की लालसा-वश निदान करने से (569) / ५७०-चहि ठाणेहि जीवा देवकिब्बिसियत्ताए कम्मं पगरेंति, त जहा-प्ररहताणं प्रवणं क्दमाणे, प्ररहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वदमाणे, प्रायरियउवझायाणमवण्णं वदमाणे, चाउवण्णास संघस्स प्रवण्णं वदमाणे / चार स्थानों से जीव देवकिल्विषिकत्व कर्म का उपार्जन करते हैं / जैसे१. अर्हन्तों का अवर्णवाद (असद्-दोषोद्भाव) करने से / 2. अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करने से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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