________________ 414 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 2. कोई असुर राक्षसियों के साथ संवास करता है। 3, कोई राक्षस असुरियों के साथ संवास करता है। 4. कोई राक्षस राक्षसियों के साथ संवास करता है (563) / ५६४-घउम्विधे सवासे पण्णते, तजहा~प्रसुरे गाममेगे असुरीए सद्धि सवास गच्छति, असुरे णाममेगे मणुस्सीए सद्धि सवास गच्छति, मणुस्से णाममेगे असुरोए सद्धि सवास गच्छति, मणुस्से णाममेगे मणुस्सीए सद्धि संवास गच्छति / पुनः संवास चार प्रकार का कहा गया है। जैसे---- 1. कोई असुर असुरियों के साथ संवास करता है / 2. कोई असुर मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है / 3. कोई मनुष्य असुरियों के साथ संवास करता है। 4. कोई मनुष्य मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है (564) / 565- चउविधे संवासे पण्णत्ते, तं जहा–रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धि सवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे मणुस्सीए सद्धि सवास गच्छति, मणुस्से णाममेगे रक्खसीए सद्धि सवास गच्छति, मणुस्से णाममेग मणस्सीए सद्धि सवास गच्छति / पुनः संवास चार प्रकार का कहा गया है / जैसे - 1. कोई राक्षस राक्षसियों के साथ संवास करता है / 2. कोई राक्षस मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है / 3. कोई मनुष्य राक्षसियों के साथ संवास करता है। 4. कोई मनुष्य मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करता है (565) / अपध्वंस-सूत्र ५६६-चउब्धिहे अवद्ध से पण्णत्ते, त जहा--प्रासुरे, पाभियोग, संमोहे, देवकिब्बिसे / अपध्वंस ( चारित्र का विनाश) चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. आसुर-अपध्वंस, 2, आभियोग-अपध्वंस, 3. सम्मोह-अपध्वंस, 4. देवकिल्विष-अपध्वंस विवेचन-शुद्ध तपस्या का फल निर्वाण-प्राप्ति है, शुभ तपस्या का फल स्वर्ग-प्राप्ति है। किन्त जिस तपस्या में किसी जाति की आकांक्षा या फल-प्राप्ति की वांछा संलग्न रहती है, वह तपः साधना के फल से देवयोनि में तो उत्पन्न होता है, किन्तु आकांक्षा करने से नीच जाति के आदि देवों में उत्पन्न होता है / जिन अनुष्ठानों या क्रियाविशेषों को करने से साधक असुरत्व का उपार्जन करता है, वह प्रासुरी भावना कही गयी है। जिन अनुष्ठानों से साधक आभियोग जाति के देवों में उत्पन्न होता है, वह आभियोग-भावना है, जिन अनुष्ठानों से साधक सम्मोहक देवों में उत्पन्न होता है, वह सम्मोही भावना है और जिन अनुष्ठानों से साधक किल्विष देवों में उत्पन्न होता है, वह देवकिल्विषी भावना है। वस्तुतः ये चारों ही भावनाएं चारित्र के अपध्वंस (विनाशरूप) हैं, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org