________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 377 2 जयसम्पन्न, न रूपसम्पन्न---कोई घोड़ा जयसम्पन्न होता है, किन्तु रूपसम्पन्न नहीं होता। 3. रूपसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी--कोई घोड़ा रूपसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है। 4. न रूपसम्पन्न, न जयसम्पन्न-कोई घोड़ा न रूपसम्पन्न होता है और न जयसम्पन्न ही होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे--- 1. रूपसम्पन्न, न जयसम्पन्न-कोई पुरुष रूपसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता। 2. जयसम्पन्न, न रूपसम्पन्न-कोई पुरुष जयसम्पन्न होता है, किन्तु रूपसम्पन्न नहीं होता। 3. रूपसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी--कोई पुरुष रूपसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न ___भी होता है। 4. न रूपसम्पन्न, न जयसम्पन्न-कोई पुरुष न रूपसम्पन्न होता है और न जयसम्पन्न ही होता है (476) / सिंह-शृगाल-सूत्र ४८०-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--सीहत्ताए णाममेगे णिक्खंते सीहत्ताए विहरइ, सीहत्ताए णाममेगे णिक्खंते सोपालत्ताए विहरइ, सोयानताए णाममेगे णिक्वंते सीहत्ताए विहरइ, सोयालत्ताए णाममेगे शिक्खंते सीयालत्ताए विहरइ / पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. कोई पुरुष सिंहवृत्ति से निष्क्रान्त (प्रवजित) होता है और सिंहवृत्ति से ही विचरता है अर्थात् संयम का दृढ़ता से पालन करता है। 2. कोई पुरुष सिंहवृत्ति से निष्क्रान्त होता है, किन्तु शृगालवृत्ति से विचरता है, ____ अर्थात् दीनवृत्ति से संयम का पालन करता है। 3. कोई पुरुष शृगालवृत्ति से निष्क्रान्त होता है, किन्तु सिंहवृत्ति से विचरता है। 4. कोई पुरुष शृगालवृत्ति से निष्क्रान्त होता है और श्र गालवृत्ति से ही विचरता है (480) / सम-सूत्र 481- चत्तारि लोगे समा पण्णत्ता, तं जहा---अपइट्ठाणे णरए, जंबुद्दीवे दीवे, पालए जाणविमाणे, सम्वट्ठसिद्ध महाविमाणे / लोक में चार स्थान समान कहे गये हैं / जैसे१. अप्रतिष्ठान नरक-सातवें नरक के पाँच नारकावासों में से मध्यवर्ती नारकावास / 2. जम्बूद्वीप नामक मध्यलोक का सर्वमध्यवर्ती द्वीप / 3. पालकयान-विमान-सौधर्मेन्द्र का यात्रा-विमान / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org