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________________ 376 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 4. न बलसम्पन्न, न रूपसम्पन्न-कोई पुरुष न बलसम्पन्न ही होता है और न रूपसम्पन्न __ ही होता है (477) / ४७८-चत्तारि पकथगा पण्णत्ता, तं जहा--बलसंपण्णे णाममेगे णो जयसंपण्णे, जयसंपण्णे णाममेगे णो बलसंपण्णे, एगे बलसंपण्णेवि जयसंपण्णेवि, एगे णो बलसपणे णो जयसपणे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-बलसपण्णे णाममेगे णो जयस पण्णे, जयसंपण्ण णाममेगे जो बलसंपणे, एगे बलसपण्णेवि जयसपण्णेवि, एगे णो बलसपण्णे णो जयसंपण्णे। पुन: घोड़े चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. बलसम्पन्न, न जयसम्पन्न--कोई घोड़ा बलसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता। 2. जयसम्पन्न, न बलसम्पन्न-कोई घोड़ा जयसम्पन्न होता है, किन्तु बलसम्पन्न नहीं होता। 3. बलसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी-कोई घोड़ा बलसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है। 4. न बलसम्पन्न, न जयसम्पन्न-कोई घोड़ा न बलसम्पन्न होता है और न जयसम्पन्न ही होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. बलसम्पन्न, न जयसम्पन्न-कोई पुरुष बलसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता / 2. जयसम्पन्न, न बलसम्पन्न-कोई पुरुष जयसम्पन्न होता है, किन्तु बलसम्पन्न नहीं होता। 3. बलसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी—कोई पुरुष बलसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है। 4. न बलसम्पन्न, न जयसम्पन्न-कोई पुरुष न बलसम्पन्न ही होता है और न जयसम्पन्न ही होता है (478) / रूप-सूत्र ४७६-चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं जहा-रूवस पण्णे णाममेगे जो जयसपण्णे 4 / (जयसंपण्णे णाममेगे णो रूवस पण्णे, एगे रूबसपण्णेवि, जयसपणेवि, एगे णो रूवसंपण्णे णो जयसपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा–रूवस पणे णाममेगे णो जयसपणे, जयसपणे णाममेगे णो रूवस पण्णे, एगे रूबसंपण्णेवि जयस पण्णेवि, एगे णो रूवसवण्णे णो जयसपणे / पुनः घोड़े चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. रूपसम्पन्न, न जयसम्पन्न-कोई घोड़ा रूपसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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