________________ (3) कितने ही श्रमणोपासक स्थाणु की तरह प्राणहीन और शुष्क होते हैं। उनमें लचीलापन नहीं होता / वे आग्रही होते हैं। (4) कितने ही श्रमणोपासक काँटे के सदृश होते हैं। काँटे की पकड़ बड़ी मजबूत होती है। वह हाथ को बींध देता है। वस्त्र भी फाड़ देता है। वैसे ही कितने ही श्रमणोपासक कदाग्रह से ग्रस्त होते हैं। श्रमण कदाग्रह छड़वाने के लिये उसे तत्त्वबोध प्रदान करते हैं। किन्तु वे तत्त्वबोध को स्वीकार नहीं करते / अपितु तत्त्वबोध प्रदान करने वाले को दुर्वचनों के तीक्ष्ण काँटों से बेध देते हैं / इस तरह श्रमणोपासक के सम्बन्ध में पर्याप्त सामग्री है। श्रमणोपासक की तरह ही श्रमणजीवन के सम्बन्ध में भी स्थानांग में महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन हुआ है। श्रमण का जीवन अत्यन्त उग्र साधना का है। जो धीर, वीर और साहसी होते हैं, वे इस महामार्ग को अपनाते हैं / श्रमणजीवन, हर साधक, जो मोक्षाभिलाषी है, स्वीकार कर सकता है। स्थानांग में प्रव्रज्याग्रहण करने के दश कारण बताये हैं / 136 यों अनेक कारण हो सकते हैं किन्त प्रमुख कारणों का निर्देश किया गया है। वत्तिकार 37 ने दश प्रकार की प्रव्रज्या के उदाहरण भी दिये हैं। (1) छन्दा - अपनी इच्छा से विरक्त होकर प्रव्रज्या धारण करना (2) रोषा-क्रोध के कारण प्रवज्या ग्रहण करना (3) दारिद्रयद्य ना-गरीबो के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना / (4) स्वप्ना--स्वप्न से वैराग्य उत्पन्न होकर दीक्षा लेना। (5) प्रतिश्रता-पहले की गयी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये प्रव्रज्या ग्रहण करना! (6) स्मारणिका--पूर्व भव की स्मृति के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना! (7) रोगिनिका-रुग्णता के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना ! (8) अनारता-अपमान के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना (9) देवसंज्ञप्तता--देवताओं के द्वारा संबोधित किये जाने पर प्रव्रज्या ग्रहण करना (10) वत्सानुबंधिका-दीक्षित पुत्र के स्नेह के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना / / श्रमण प्रव्रज्या के साथ ही स्थानांग में श्रमणधर्म की सम्पूर्ण प्राचारसंहिता दी गई है। उसमें पाँच महाव्रत, अष्ट प्रवचनमाता, नव ब्रह्मचर्य गुप्ति, परीषहविजय, प्रत्याख्यान, पांच-परिज्ञा, वाह्य और प्राभ्यन्तर तप, प्रायश्चित्त, पालोचना करने का अधिकारी, आलोचना के दोष, प्रतिक्रमण के प्रकार, विनय के प्रकार, वैयावत्य के प्रकार, स्वाध्याय-ध्यान, अनुप्रेक्षाएँ मरण के प्रकार, आचार के प्रकार, संयम के प्रकार, आहार के कारण, गोचरी के प्रकार, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, भिक्ष-प्रतिमाएँ, प्रतिलेखना के प्रकार, व्यवहार के प्रकार, संघ-व्यवस्था, प्राचार्यउपाध्याय के अतिशय, गण-छोड़ने के कारण, शिष्य और स्थविर, कल्प, समाचारी सम्भोग-विसम्भोग, निर्ग्रन्थ और निन्थियों के विशिष्ट नियम ग्रादि श्रमणाचार-सम्बन्धी नियमोपनियमों का वर्णन है। जो नियम अन्य प्रागमों में बहत विस्तार के साथ गाये हैं। उनका संक्षेप में यहाँ सूचन किया है। जिससे श्रमण उन्हें स्मरण रखकर सम्यक प्रकार से उनका पालन कर सके। तुलनात्मक अध्ययन : प्रागम के प्रालोक में स्थानांग सूत्र में शताधिक विषयों का संकलन हया है। इसमें जो सत्य-तथ्य प्रकट हुए हैं उनकी प्रतिध्वनि अन्य प्रागमों में निहारी जा सकती है। कहीं-कहीं पर विषय-साम्य हैं तो कहीं-कहीं पर शब्द-साम्य है। स्थानांग के विषयों की अन्य प्रागमों के साथ तुलना करने से प्रस्तुत प्रागम का सहज ही महत्त्व परिज्ञात होता है। हम यहाँ बहत ही संक्षेप में स्थानांगगत-विषयों की तुलना अन्य प्रागमों के आलोक में कर रहे हैं। स्थानांग135 में द्वितीय सत्र है "एगे प्राया" / यही सूत्र समवायांग 136 में भी शब्दशः मिलता है। भगवती१४० में इसी का द्रव्य दृष्टि से निरूपण है। 136. स्थानांग सूत्र स्थान-१० सूत्र 712 137. स्थानांग सूत्र वति पत्र-पृ. 449 138. स्थानांग सूत्र-स्थान-१० सूत्र 2 मुनि कन्हैयालालजी सम्पादित 139. समवायांग सूत्र-समवाय-१० सूत्र-१ 140. भगवती सूत्र-शतक 12 उद्दे० 10 [ 42] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org