________________ आचार-विश्लेषण ___ दर्शन की तरह अाचार सम्बन्धी वर्णन भी स्थानांग में बहुत ही विस्तार के साथ किया गया है / प्राचारसंहिता के सभी मूलभूत तत्त्वों का निरूपण इसमें किया गया है। धर्म के दो भेद हैं—सागार-धर्म और अनगार-धर्म! सागार-धर्म-सीमित मार्ग है। वह जीवन की सरल और लघु पगडण्डी है। गृहस्थ धर्म अणु अवश्य है किन्तु हीन और निन्दनीय नहीं है / इसलिये सागार धर्म का प्राचारण करने वाला व्यक्ति श्रमणोपासक या उपासक कहलाता है।'२६ स्थानांग में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चरित्र को मुक्ति का मार्ग कहा है। 17deg उपासकजीवन में सर्वप्रथम सत्य के प्रति आस्था होती है। सम्यग्दर्शन के आलोक में ही वह जड़ और चेतन, संसार और मोक्ष, धर्म और अधर्म का परिज्ञान करता है। उस को यात्रा का लक्ष्य स्थिर हो जाता है। उस का सोचना समझना और बोलना, सभी कुछ विलक्षण होता है। उपासक के लिये "अभिगयजीवाजोवे" यह विशेषण आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर व्यवहृत हया है। स्थानांग के द्वितीय स्थान में इस सम्बन्ध में-अच्छा चिन्तन प्रस्तुत किया है। 131 मोक्ष की उपलब्धि के साधनों के विषय, में सभी दार्शनिक एकमत नहीं है। जैन दर्शन न एकान्त ज्ञानवादी है, न क्रियावादी है, न भक्तिवादी है। उनके अनुसार ज्ञान-क्रिया और भक्ति का समन्वय ही मोक्षमार्ग है / स्थानांग में 132 "विज्जाए चेव चरणेण चेव" के द्वारा इस सत्य को उद्घाटित किया है। स्थानांग 133 में उपासक के लिये पाँच अणुबतों का भी उल्लेख है / उपासक को अपना जीवन, व्रत से युक्त बनाना चाहिये / श्रमणोपासक की श्रद्धा और वत्ति की भिन्नता के आधार पर इस को चार भागों में विभक्त किया है। जिन के अन्तर्मानस में श्रमणों के प्रति प्रगाढ वात्सल्य होता है, उन की तुलना माता-पिता से की है। 134 वे तत्त्वचर्चा और जीवन निर्वाह इन दोनों प्रसंगों में वात्सल्य का परिचय देते हैं। कितने ही श्रमणोपासकों के अन्तर्मन में वात्सल्य भी होता है और कुछ उग्रता भी रही हुयी होती है। उनकी तुलना भाई से की गयी है। वैसे श्रावक तत्त्वचर्चा के प्रसंगों में निष्ठुरता का परिचय देते हैं। किन्तु जीवन-निर्वाह के प्रसंग में उनके हृदय में वत्सलता छलकती है। किनने ही श्रमणोपासकों में सापेक्ष वृत्ति होती है। यदि किसी कारणवश प्रीति नष्ट हो गयी तो वे उपेक्षा भी करते है। वे अनकलता के समय वात्सल्य का परिचय देते हैं और प्रतिकूलता के समय उपेक्षा भी कर देते हैं। कितने ही श्रमणोपासक ईर्ष्या के वशीभूत होकर श्रमणों में दोष ही निहारा करते हैं। वे किसी भी रूप में श्रमणों का उपकार नहीं करते हैं। उनके व्यवहार की तु/रना सौत से की गई है। प्रस्तुत प्रागम में 135 श्रमणोपासक की आन्तरिक योग्यता के अाधार पर चार वर्ग किये हैं। (1) कितने ही श्रमणोपासक दर्पण के समान निर्म होते हैं / वे तत्त्वनिरूपण के यथार्थ प्रतिविम्ब को ग्रहण करते हैं। (2) कितने ही श्रमणोपासक ध्वजा की तरह अनवस्थित होते हैं / ध्वजा जिधर भी हवा होती है, उधर ही मुड़ जाती है। उसी प्रकार उन श्रमणोपासकों का तत्त्वबोध अवस्थित होता है। निश्चित-बिन्दु पर उन के विचार स्थिर नहीं होते। 129. स्थानांग सूत्र स्थान 2 सूत्र 72 130. स्थानांग सूत्र स्थान-३ सूत्र-४३ से-१३७ / 131. स्थानांग सूत्र स्थान-२ सूत्र१३२. स्थानांग सूत्र स्थान-२ सूत्र 40 133. स्थानांग सूत्र स्थान-५. सूत्र 389 134. स्थानांग सूत्र-स्थान 4 सूत्र 830 135. स्थानांग सूत्र स्थान-४ सूत्र 431 [ 41] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org