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________________ (2) जब वादो को यह अनुभव होने लगता है कि मेरे विजय का अवसर पा चुका है, तब वह सोल्लास बोलने लगता है और प्रतिवादी को प्रेरणा देकर के वाद का शीघ्र प्रारम्भ कराता है।५२४ (3) वादी सामनीति से विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बनाकर वाद का प्रारम्भ करता है। या प्रतिवादी को अनुकुल बनाकर वाद प्रारम्भ कर देता है। उसके पश्चात उसे वह पराजित कर देता है।१२५ (4) यदि वादी को यह आत्म-विश्वास हो कि प्रतिवादी को हराने में वह पूर्ण समर्थ है तो वह सभापति और प्रतिवादी को अनुकूल न बनाकर प्रतिकूल ही बनाता है और प्रतिवादी को पराजित करता है। (5) अध्यक्ष की सेवा करके वाद करना। (6) जो अपने पक्ष में व्यक्ति हैं उन्हें अध्यक्ष से मेल कराता है। और प्रतिवादी के प्रति अध्यक्ष के मन में द्वेष पैदा करता है। स्थानांग में वादकथा के दश दोष गिनाये हैं। 126 वे इस प्रकार हैं (1) तज्जातदोष-----प्रतिवादी के कुल का निर्देश करके उसके पश्चात दुषण देना अथवा प्रतिवादी को प्रकृष्ट प्रतिभा से विक्षुब्ध होने के कारण वादी का चुप होजाना / (2) मतिभंग - वाद-प्रसंग में प्रतिवादी या वादी का स्मृतिभ्रंश होना / (3) प्रशास्तदोष-वाद-प्रसंग में सभ्य या सभापति-पक्षपाती होकर जय-दान करें या किसी को सहायता दें। (4) परिहरण-सभा के नियम-विरुद्ध चलना या दुपण का परिहार जात्युत्तर से करना / (5) स्वलक्षण - अतिव्याप्ति प्रादि दोष / (6) कारण--युक्तिदोष / (7) हेतुदोष---असिद्धादि हेत्वाभास / () संक्रमण-प्रतिज्ञान्तर करना। या प्रतिवादी के पक्ष को मानना / टीकाकार ने टीका में लिखा हैप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा का त्यागकर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना / (9) निग्रह–छलादि के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत करना। (10) वस्तुदोष-पक्ष-दोष अर्थात् प्रत्यक्षनिराकृत प्रादि / न्यायशास्त्र में इन सभी दोषों के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन है / अतः इस सम्बन्ध में यहाँ विशेप विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। स्थानांग में विशेष प्रकार के दोष भी बताये हैं और टीकाकार ने उस पर विशेष-वर्णन भी किया है। छह प्रकार के वाद के लिये प्रश्नों का वर्णन है। नयवाद 127 का और निह्नववाद 128 का वर्णन है / जो उस युग के अपनी दृष्टि से चिन्तक रहे हैं। बहुत कुछ वर्णन जहाँ-तहाँ बिखरा पड़ा है। यदि विस्तार के साथ तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन किया जाये तो दर्शन-सम्बन्धी अनेक अज्ञात-रहस्य उद्घाटित हो सकते हैं। 124. तुलना कीजिये चरक विमान स्थान प्र.८ सुत्र 21 125. तुलना कीजिये चरक विमान स्थान प्र. 8 सूत्र 16 126. स्थानांग सूत्र स्थान 10 सूत्र 743 स्थानांग सूत्र स्थान 7 128. स्थानांग मूत्र स्थान 7 127. [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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