________________ स्थानांग में प्रमाण शब्द के स्थान पर "हेतु" शब्द का प्रयोग मिलता है। 114 ज्ञप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्ष प्रादि को हेतु शब्द से व्यवहृत करने में प्रौचित्य भंग भी नहीं है। चरक में भी प्रमाणों का निर्देश "हेतु" शब्द से हया है।११५ स्थानांग में ऐतिह्य के स्थान पर पागम शब्द व्यवहृत हया है। किन्तु चरक में ऐतिह्य को ही आगम कहा है।११६ स्थानांग में निक्षेप पद्धति से प्रमाण के चार भेद भी प्रतिपादित हैं -.११°द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण। यहाँ पर प्रमाण का व्यापक अर्थ लेकर उसके भेदों की परिकल्पना की है। अन्य दार्शनिकों की भांति केवल प्रमेयसाधक तीन, चार, छह, आदि प्रमाणों का ही समावेश नहीं है। किन्तु व्याकरण और कोष आदि से सिद्ध प्रमाण शब्द के सभी-अर्थों का समावेश करने का प्रयत्न किया है / यद्यपि मूल-सूत्र में भेदों की गणना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा गया है। वाद के प्राचार्यों ने इन पर विस्तार से विश्लेषण किया है / स्थानाभाव में हम इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं कर रहे हैं। स्थानांग में तीन प्रकार के व्यवसाय बताये हैं।११८ प्रत्यक्ष "अवधि' आदि, प्रात्ययिक-''इन्द्रिय और मन के निमित्त मे" होने वाला, ग्रानुगामिक-'अनुसरण करने वाला। व्यवसाय का अर्थ है--निश्चय या निर्णय ! यह वर्गीकरण ज्ञान के आधार पर किया गया है / प्राचार्य सिद्धसेन से लेकर सभी ताकिकों ने प्रमाण को स्व-पर व्यवसायी माना है। वार्तिककार शान्त्याचार्य ने न्यायावतारगत अवभास का अर्थ करते हुये कहा—अवभास व्यवसाय है, न कि ग्रहणमात्र / 16 प्राचार्य प्रकलंक यादि ने भी प्रमाणलक्षण में "व्यवसाय" पद को स्थान दिया है। और प्रमाण को व्यवसायात्मक कहा है। 120 स्थानांग में व्यवसाय बताये गये हैं। प्रत्यक्ष, प्रात्यायिक-यागम और प्रानुगामिक-अनुमान / इन तीन की तुलना वैशेषिक दर्शन सम्मत प्रत्यक्ष, अनुमान और पागम इन तीन प्रमाणों से की जा सकती है। भगवान महावीर के शिष्यों में चार सौ शिष्य वाद-विद्या में निपुण थे / 21 नवमें स्थान में जिन नव प्रकार के विशिष्ट व्यक्तियों को बताया है उन में वाद-विद्या-विशारद व्यक्ति भी हैं। बहत्वल्प भाष्य में वादविद्याकुशल श्रमणों के लिये शारीरिक शुद्धि प्रादि करने के अपवाद भी बताये हैं / 122 वादी को जैन धर्म प्रभावक भी माना है। स्थानांग में विवाद के छह प्रकारों का भी निर्देश है।१२३ अवष्वक्य, उत्बक्य, अनुलोम्य, प्रतिलोम्य, भेदयित्वा, मेलयित्वा / वस्तुतः ये विवाद के प्रकार नहीं, किन्तु यादी और प्रतिवादी द्वारा अपनी विजयवैजयन्ती फहराने के लिये प्रयुक्त की जाने वाली युक्तियों के प्रयोग हैं। टीकाकार ने यहाँ विवाद का अर्थ "जल्प" किया है। जैसे-(१) निश्चित समय पर यदि वादी की वाद करने की तैयारी नहीं हैं तो वह स्वयं बहाना बनाकर सभास्थान का त्याग कर देता है। या प्रतिवादी को वहां से हटा देता है। जिससे बाद में विलम्ब होने के कारण वह उस समय अपनी तैयारी कर लेता है। 114. स्थानांग मूत्र-स्थान-४, सूत्र 338 / 115. चरक. बिमान स्थान, अ. 8 सूत्र 33 / 116. चरक विमानस्थान अ. 8 सूत्र 41 / 117. स्थानांग सूत्र स्थान 4 सूत्र 258 / 118. स्थानांग सूत्र स्थान 3 सूत्र 185 / / 119. न्यायावतार वार्तिक बति-कारिका 3 // 120. न्यायावतार, वार्तिक वृत्ति के टिप्पण पृ. 148 से 151 तक 121. स्थानांग सूत्र स्थान-९ सूत्र 382 122. वृहत्कल्प भाष्य-६०३५ 123. स्थानांग सूत्र--स्थान 6 सूत्र 512 [ 39 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org