________________ ज्ञान की प्रावश्यकता होती है / उदाहरण के रूप में स्मृतिज्ञान में धारणा की अपेक्षा रहती है। प्रत्यभिज्ञान में अनुभव और स्मृति की—तक में व्याप्ति की। अनमान में हेतू की, तथा पागम में शब्द और संकेत की अपेक्षा रहती है। इसलिये वे अस्पष्ट हैं / अपर शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिस का ज्ञेय पदार्थ निर्णय-काल में छिपा रहता है बह ज्ञान अस्पष्ट या परोक्ष है / स्मृति का विषय स्मृतिकर्ता के सामने नहीं होता। प्रत्यभिज्ञान में भी वह अस्पष्ट होता है। तर्क में भी त्रिकालीन सर्वध्रम और अग्नि प्रत्यक्ष नहीं होते। अनुमान का विषय भी सामने नहीं होता और अागम का विषय भी। अवग्रह-यादि प्रात्म-सापेक्ष न होने से परोक्ष है / लोक व्यवहार से अवग्रह आदि को मांव्यहारिक प्रत्यक्ष विभाग में रखा है। 112 स्थानाङ्ग में ज्ञान का वर्गीकरण इस प्रकार है---११३ ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष केवलज्ञान केवलज्ञान नो-केवलज्ञान अवधिज्ञान मन:पर्यवज्ञान भवप्रत्यायिक क्षायोपशमिक ऋजुमति विमलमति प्राभिनिवोधिक श्रतज्ञान श्रतनिश्चित अश्र तनिश्चित अर्थावग्रह ब्यजनावग्रह अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह अंगप्रविष्ट अंगबाह्य अावश्यक यावश्यक व्यतिरिक्त उत्कालिक कालिक 112. क—देखिये जैन दर्शन–स्वरूप और विश्लेषण पृ. 326 से 372 देवेन्द्र मुनि 113. स्थानांग सूत्र-स्थान-२, सूत्र 86 से 106 / [38] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org