________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश] [351 जो श्रमणोपासक पताका (ध्वजा) के समान अस्थिरचित्त होता है, वह विभिन्न प्रकार की देशना रूप वायु से प्रेरित होने के कारण किसी एक निश्चित तत्त्व पर स्थिर नहीं रह पाता, उसे पताका के समान कहा गया है। जो श्रमणोपासक स्थाणु (सूखे वृक्ष के ठूठ) के समान नमन-स्वभाव से रहित होता है, अपने कदाग्रह को समझाये जाने पर भी नहीं छोड़ता है, वह स्थाणु-समान कहा गया है / जो श्रमणोपासक महाकदाग्रही होता है, उसको दूर करने के लिए यदि कोई सन्त पुरुष प्रयत्न करता है तो वह तीक्ष्ण दुर्वचन रूप कण्टकों से उसे भी विद्ध कर देता है, उसे खर कण्टक समान कहा गया है। ___इस प्रकार चित्त की निर्मलता, अस्थिरता, अनम्रता और कलुषता की अपेक्षा चार भेद कहे गये हैं। ४३२-समणस्स णं भगवतो महावीरस्स समणोवासगाणं सोधम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलिप्रोवमाडं ठिती पण्णत्ता। सौधर्म कल्प में अरुणाभ विमान में उत्पन्न हुए श्रमण भगवान् महावीर के श्रमणोपासकों की स्थिति चार पल्योपम कही गई है (432) / . अधुनोपपन्न-देव-सूत्र __ ४३३-चहि ठाणेहि पहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए, तं जहा 1. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभोगेसु मच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोवणे, से णं माणस्सए कामभोगे जो प्राढाइ, णो परियाणाति, णो प्रबंधइ, णो णिमणं पगरेति, णो ठितिपगप्पं पगरेति / 2. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिवेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्ध गहिते अज्झोववण्णे, तस्स माणुस्सए पेमे वोच्छिण्णे दिव्वे संकते भवति / 3. अहुणोक्वण्णे देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्ध गढिते प्रज्झोक्वणे, तस्स णं एवं भवति --इण्हि गच्छं महुत्तेणं गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया मणुस्सा कालधम्मणा सजुत्ता भवंति। 4. अहुणोववष्णे देवे देवलोगेसु दिध्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्ध गढिते प्रज्झोववष्णे, तस्स णं माणुस्सए गंधे पडिकले पडिलोमे यावि भवति, उड्डपि य णं माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंच जोयणसताई हव्वमागच्छति / / इच्चेतेहि चउहि ठाणेहि प्रणोववष्णे देवे देवलोएसु इच्छेज्ज माणुस लोग हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हन्वमागच्छित्तए / चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पत्र हुआ देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की इच्छा करता है, किन्तु शीघ्र पाने में समर्थ नहीं होता / जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org