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________________ 350] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. कोई अवमरानिक श्रमणोपासिका महाकर्मा, महाक्रिय, अनातापिनी और असमित होने के कारण धर्म की अनाराधिका होती है। 4. कोई अवमरानिक श्रमणोपासिका अल्पकर्मा, अल्पक्रिय, प्रातापिनी और समित होने के कारण धर्म की पाराधिका होती है (426) / श्रमणोपासक-सूत्र ४३०-चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा-अम्मापितिसमाणे, भातिसमाणे, मित्तसमाणे, सवत्तिसमाणे। श्रमणोपासक चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. माता-पिता के समान, 2. भाई के समान, 3. मित्र के समान, 4. सपत्नी के समान (430) / विवेचन–श्रमण-निर्ग्रन्थ साधनों की उपासना-आराधना करने वाले गृहस्थ श्रावकों को श्रमणोपासक कहते हैं। जिन श्रमणोपासकों में श्रमणों के प्रति अत्यन्त स्नेह, वात्सल्य और श्रद्धा का भाव निरन्तर प्रवहमान रहता है उनकी तुलना माता-पिता से की गई है / वे तात्त्विक-विचार और जीवन-निर्वाह-दोनों ही अवसरों पर प्रगाढ़ वात्सल्य और भक्ति-भाव का परिचय देते हैं / जिन श्रमणोपासकों में श्रमणों के प्रति यथावसर वात्सल्य और यथावसर उग्रभाव दोनों होते हैं, उनकी तुलना भाई से की गई है, वे तत्त्व-विचार आदि के समय कदाचित् उग्रता प्रकट कर देते हैं, किन्तु जीवन-निर्वाह के प्रसंग में उनका हृदय वात्सल्य से परिपूर्ण रहता है / जिन श्रमणोपासकों में श्रमरणों के प्रति कारणवश प्रीति और कारण विशेष से अप्रीति दोनों पाई जाती है, उनकी तुलना मित्र से की गई है, ऐसे श्रमणोपासक अनुकूलता के समय प्रीति रखते हैं और प्रतिकूलता के समय अप्रीति या उपेक्षा करने लगते हैं। जो केवल नाम से ही श्रमणोपासक कहलाते हैं, किन्तु जिनके भीतर श्रमणों के प्रति वात्सल्य या भक्तिभाव नहीं होता, प्रत्युत जो छिद्रान्वेषण ही करते रहते हैं, उनकी तुलना सपत्नी (सौत) से का गई है। इस प्रकार श्रद्धा, भक्ति-भाव और वात्सल्य की हीनाधिकता के आधार पर श्रमरणोपासक चार प्रकार के कहे गये हैं। ४३१---चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा-अदागसमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमाणे, खरकंटयसमाणे। पुनः श्रमरणोपासक चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. आदर्शसमान, :2. पताकासमान, 3. स्थाणुसमान, 4. खरकण्टकसमान (431) / विवेचन-जो श्रमणोपासक आदर्श (दर्पण) के समान निर्मलचित्त होता है, वह साधु जनों के द्वारा प्रतिपादित उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग के आपेक्षिक कथन को यथावत् स्वीकार करता है, वह आदर्श के समान कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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