________________ 352 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 1. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूच्छित, गद्ध, ग्रथित (बद्ध) और अध्युपपन्न (आसक्त) होकर मनुष्यों के काम-भोगों का आदर नहीं करता है, उन्हें अच्छा नहीं जानता है, उनसे प्रयोजन नहीं रखता है, उन्हें पाने का निदान (संकल्प) नहीं करता है और न स्थितिप्रकल्प (उनके मध्य में रहने की इच्छा) करता है। 2. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूच्छित, गृद्ध, अथित और आसक्त हो जाता है, अतः उसका मनुष्य-सम्बन्धी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है और उसके भीतर दिव्य प्रेम संक्रान्त हो जाता है। 3. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूच्छित, गृद्ध, प्रथित और आसक्त हो जाता है, तब उसका ऐसा विचार होता है-अभी जाता हूँ, थोड़ी देर में जाता हूं। इतने काल में अल्प आयु के धारक मनुष्य कालधर्म से संयुक्त हो जाते हैं / 4. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूच्छित, गृद्ध, प्रथित और आसक्त हो जाता है, तब उसे मनुष्यलोक की गन्ध प्रतिकूल (दिव्य सुगन्ध से विपरीत दुर्गन्ध रूप) तथा प्रतिलोम (इन्द्रिय और मन को अप्रिय) लगने लगती है, क्योंकि मनुष्यलोक की दुर्गन्ध ऊपर चार-पांच सौ योजन तक फैलती रहती है / (एकान्त सुषमा आदि कालों में चार योजन और दूसरे कालों में पांच योजन ऊपर तक दुर्गन्ध फैलती है / ) इन चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की इच्छा करता है, किन्तु शीघ्र पाने में समर्थ नहीं होता (433) / ४३४-चहि ठाणेहि प्रणोदवणे देवे देवलोएसु इच्छेज्ज माणुस लोग हव्यमागच्छित्तए, संचाएति हव्वमागच्छित्तए, तं जहा 1. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिब्बेसु कामभोगेसु अमुच्छिते जाव [अगिद्ध प्रगढिते] अणझोववण्णे, तस्स णं एवं भवति-अस्थि खलु मम माणुस्सए भवे प्रायरिएति वा उवज्झाएति वा पवत्तीति वा थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेदेति वा, जेसि पभावेणं मए इमा एतारूबा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुती [दिब्वे देवाणुभावे ?] लद्धा पत्ता अभिसमण्णागता तं गच्छामि णं ते भगवते वंदामि जाव [णमंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं] पज्जुवासामि। 2. अहुणोवण्णे देवे देवलोएसु जाव [दिव्वेसु कामभोगसु प्रमुच्छिते अगिद्ध प्रगढिते] अणझोववष्णे, तस्स गमेवं भवति-एस णं माणुस्सए भवे गाणीति वा तवस्सीति वा अइदुक्कर-दुक्करकारग, तं गच्छामि णं ते भगवंते वदामि जाव [णमंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं] पज्जुवासामि। प्रणोववणे देवे देवलोएसु जाव [दिव्वेसु कामभोगसु अमच्छिते अगिद्ध प्रगढिते] अणझोववणे, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सए भवे माताति वा जाव [पियाति वा भायाति वा भगिणीति वा भज्जाति वा पुत्ताति वा धूयाति वा] सुण्हाति वा, तं गच्छामि गं तेसिमंतियं पाउडभवामि, पासतु ता मे इममेतारूवं दिव्वं देविति दिव्वं देवजुति [दिव्वं देवाणुभावं ? ] लद्ध पत्तं अभिसमण्णागतं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org