SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ स्थान--तृतीय उद्देश ] [347 अंतेवासी-सूत्र ४२४–चत्तारि अंतेवासी पण्णत्ता, तं जहा-पवावणंतेवासी णाममेगे णो उवद्वावणंतेवासी, उवट्ठावणंतेवासी णाममेगे णो पव्वावणंतेवासी, एगे पवावणंतेवासीवि उवद्वावणंतेवासीवि, एगे णो पधावणंतेवासी णो उवट्ठावणंतेवासी--धम्मंतेवासी। अन्तेवासी (समीप रहने वाले अर्थात् शिष्य) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. प्रव्राजनान्तेवासी, न उपस्थापनान्तेवासी-कोई शिष्य प्रवाजना अन्तेवासी होता है अर्थात् दोक्षा देने वाले प्राचार्य का दीक्षादान की दृष्टि से ही शिष्य होता है, किन्तु उपस्थापना को दृष्टि से अन्तेवासी नहीं होता। 2. उपस्थापनान्तेवासी, न प्रव्राजनान्तेवासी-कोई शिष्य उपस्थापना की अपेक्षा से अन्ते वासी होता है, किन्तु प्रवाजना की अपेक्षा से अन्तेवासी नहीं होता। 3. प्रव्राजनान्तेवासी, उपास्थापनान्तेवासी-कोई शिष्य प्रव्राजना-अन्तेवासी भी होता है और उपस्थापना-अन्तेवासी भी होता है (जिसने एक ही आचार्य से दीक्षा और उपस्थापना ग्रहण की हो)। 4. न प्रव्राजनान्तेवासी, न उपस्थापनान्तेवासी-कोई शिष्य न प्रिव्राजना की अपेक्षा अन्ते वासी होता है और न उपस्थापना की दृष्टि से ही अन्तेवासी होता है, किन्तु मात्र धर्मोपदेश की अपेक्षा अन्तेवासी होता है अथवा अन्य प्राचार्य द्वारा दीक्षित एवं उपस्थापित होकर जो किसी अन्य प्राचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करता है (424) / ४२५-चत्तारि अंतेवासी पण्णता, तं जहा--उद्वेसणंतेवासी णाममेगे जो वायणंतेवासी, वायणंतेवासी णाममेगे णो उद्देसणंतेवासी, एगे उद्देसणंतेवासी वि वायणंतेवासीवि, एगे णो उद्देसणंतेवासा णो वायणंतेवासी—धम्मतेवासी। पुनः अन्तेवासी चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. उद्देशनान्तेवासी, न वाचनान्तेवासी-कोई शिप्य उद्देशना की अपेक्षा से अन्तेवासी होता है, किन्तु वाचना की अपेक्षा से अन्तेवासी नहीं होता। 2. वाचनान्तेवासी, न उद्देशनान्तेवासी-कोई शिष्य वाचना की अपेक्षा से अन्तेवासी होता है, किन्तु उद्देशना की अपेक्षा से अन्तेवासी नहीं होता। 3. उद्देशनान्तेवासी, वाचनान्तेवासी-कोई शिष्य उद्देशन की अपेक्षासे भी अन्तेवासी होता है और वाचना की अपेक्षा से भी अन्तेवासी होता है। 4. न उद्देशनान्तेवासी, न वाचनान्तेवासो--कोई शिष्य न उद्देशन से ही अन्तेवासी होता है और न वाचना की अपेक्षा से ही अन्तेवासी होता है। मात्र धर्म प्रतिबोध पाने की अपेक्षा से अन्तेवासी होता है (425) / महत्कर्म-अल्पकर्म-निर्ग्रन्य-सूत्र ४२६–चत्तारि णिग्गंथा पण्णत्ता, तं जहा१. रातिणिए समणे जिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स प्रणाराधए भवति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy