________________ 342] [स्थानाङ्गसूत्र इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. आमलकमधुर फल समान-कोई आचार्य प्रांवले के फल समान अल्पमधुर होते हैं। 2. मृद्वीकामधुर फल समान ~ कोई आचार्य दाख के फल समान मधुर होते हैं। 3. क्षीरमधुर फल समान--कोई आचार्य दूध-मधुर फल समान अधिक मधुर होते हैं / 4. खण्ड मधुरफल समान--कोई प्राचार्य खांड-मधुर फल समान बहुत अधिक मधुर होते हैं (411) / विवेचन---जैसे आंवले से अंगूर आदि फल उत्तरोत्तर मधुर या मीठे होते हैं, उसी प्रकार प्राचार्यों के स्वभाव में भी तर-तम-भाव को लिए हुए मधुरता पाई जाती है, अत: उनके भी चार प्रकार कहे गये हैं। वयावृत्त्य-सूत्र ४१२–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-आतवेयावच्चकरे णामोंगे णो परवेयावच्चकरे, परवेयावच्चकरे णाममेगे णो प्रातवेयावच्चकरे, एग प्रातवेयावच्चकरेवि परवेयावच्चकरेवि, एग णो प्रातवेयावच्चकरे णो परवेयावच्चकरे। पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. आत्म-वैयावृत्त्यकर, न पर-वैयावृत्त्यकर--कोई पुरुष अपनी वैयावृत्त्य (सेवा-टहल) ____ करता है, किन्तु दूसरों की वैयावृत्त्य नहीं करता। 2. पर-वैयावृत्त्यकर, न आत्म-वैयावृत्त्यकर--कोई पुरुष दूसरों की वैयावृत्त्य करता है, किन्तु अपनी वैयावृत्त्य नहीं करता। 3. प्रात्म-वैयावृत्त्यकर, पर-वैयावृत्त्यकर--कोई मनुष्य अपनी भी वैयावृत्त्य करता है ___ और दूसरों की भी वैयावृत्त्य करता है। 4. न आत्म-वैयावृत्त्यकर, न पर-वैयावृत्त्यकर--कोई पुरुष न अपनी वैयावृत्त्य ही करता __ है और न दूसरों की ही वैयावृत्त्य करता है (412) / विवेचन--स्वार्थी मनुष्य अपनी सेवा-टहल करता है, पर दूसरों की नहीं / निःस्वार्थी मनुष्य दूसरों की सेवा करता है, अपनी नहीं / श्रावक अपनी भी सेवा करता है और दूसरों की भी सेवा करता है / आलसी, मूर्ख और पादोपगमन संथारावाला या जिनकल्पी साधु न अपनी सेवा करता है और न दूसरों की ही सेवा करता है। ४१३–चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-करेति णाममेगे यावच्चं णो पडिच्छइ, पडिच्छइ णाममेगे बेयावच्चं णो करेति, एगे करेतिवि वेयावच्चं पडिच्छइवि, एग णो करेति वेयावच्चं णो पडिच्छ। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे--- 1. कोई पुरुष दूसरों की वैयावृत्त्य करता है, किन्तु दूसरों से अपनी वैयावृत्त्य नहीं कराता। 2. कोई पुरुष दूसरों से अपनी वैयावृत्त्य कराता है, किन्तु दूसरों की नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org