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________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 343 3. कोई पुरुष दूसरों की भी वैयावृत्त्य करता है और अपनी भी वैयावृत्त्य दूसरों से कराता है। 4. कोई पुरुष न दूसरों की वैयावृत्त्य करता है और न दूसरों से अपनो कराता है (413) / अर्थ-मान-सूत्र ४१४--चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा–अट्टकरे गाममेग जो माणकरे, माणकरे णाममेगे जो अटुकरे, एगे अट्टकरेवि माणकरेवि, एगे णो अटुकरे णो माणकरे। पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. अर्थकर, न मानकर--कोई पुरुष अर्थकर होता है, किन्तु अभिमान नहीं करता। 2. मानकर, न अर्थकर--कोई परुष अभिमान करता है, किन्त अर्थकर नहीं होता। 3. अर्थकर भी, मानकर भी-कोई पुरुष अर्थकर भी होता है और अभिमान भी करता है। 4. न अर्थकर, न मानकर-कोई पुरुष न अर्थकर होता है और न अभिमान ही करता है (414) / विवेचन---'अर्थ' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं / प्रकृत में इसका अर्थ ' इष्ट या प्रयोजन-भूत कार्य को करना और अनिष्ट या अप्रयोजनभूत कार्य का निषेध करना' ग्राह्य है। राजा के मंत्री या पुरोहित आदि प्रथम भंग की श्रेणी में आते हैं। वे समय-समय पर अपने स्वामी को इष्ट कार्य सुझाने और अनिष्ट कार्य करने का निषेध करते रहते हैं / किन्तु वे यह अभिमान नहीं करते कि स्वामी ने हम से इस विषय में कुछ नहीं पूछा है तो हम बिना पूछे यह कार्य कैसे करें। कर्मचारी-वर्ग भी इस प्रथम श्रेणी में आता है। अर्थ का दूसरा अर्थ धन भी होता है। घर का कोई प्रधान संचालक धन कमाता है और घर भर का खर्च चलाता है, किन्तु वह यह अभिमान नहीं करता कि मैं धन कमाकर सब का भरण-पोषण करता हूं / दूसरी श्रेणी में वे पुरुष आते हैं जो वय, विद्या आदि में बढ़-चढ़े होने से अभिमान तो करते हैं, किन्तु न प्रयोजनभूत कोई कार्य ही करते हैं और न धनादि ही कमाते हैं / तीसरी श्रेणी में मध्य वर्ग के गृहस्थ आते हैं और चौथी श्रेणी में दरिद्र, मूर्ख और आलसी पुरुष परिगणनीय हैं / इसी प्रकार आगे कहे जाने वाले सूत्रों का भी विवेचन करना चाहिए। ४१५---चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-गणटुकरे गाममेगे णो माणकरे, माणकरे णाममेगे गो गणटकरे, एग गणटुकरेवि माणकरेवि, एगे णो गण?क णो माणकरे / पनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. गणार्थकर, न मानकर--कोई पुरुष गण के लिए कार्य करता है, किन्तु अभिमान नहीं करता। 2. मानकर न गणार्थकर--कोई पुरुष अभिमान करता है, किन्तु गण के लिए कार्य नहीं करता। 3. गणार्थकर भी, मानकर भी-कोई पुरुष गण के लिए कार्य भी करता है और अभिमान भी करता है। 4. न गणार्थकर, न मानकर--कोई पुरुष न गण के लिए कार्य ही करता है और न अभिमान ही करता है (415) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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