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________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश ] [316 अर्थ को दृष्टि में रखकर उक्त सूत्रों के चारों अंगों को व्याख्या करनी चाहिए / जैसे कोई पुरुष अपनी प्रतीति करता है, दूसरे की नहीं इत्यादि। ____ जो पुरुष दूसरे के मन में प्रीति या प्रतीति उत्पन्न करना चाहते हैं और प्रीति या प्रतीति उत्पन्न कर देते हैं, उनकी ऐसी प्रवृत्ति के तीन कारण टीकाकार ने बतलाये हैं-स्थिरपरिणामक होना, उचित सन्मान करने की निपुणता और सौभाग्यशालिता। जिस पुरुष में ये तीनों गुण होते हैं, वह सहज में ही दूसरे के मन में प्रीति या प्रतीति उत्पन्न कर देता है किन्तु जिसमें ये गुण नहीं होते हैं, वह वैसा नहीं कर पाता। जो परुष दूसरे के मन में अप्रीति या अप्रतीति उत्पन्न करना चाहता है, किन्तु उत्पन्न नहीं कर पाता, ऐसी मनोवृत्ति की व्याख्या भी टीकाकार ने दो प्रकार से की है 1. अप्रीति या अप्रतीति उत्पन्न करने के पूर्वकालिक भाव उत्तरकाल में दूर हो जाने पर दूसरे के मन में अप्रीति या अप्रतीति उत्पन्न नहीं कर पाता। 2. अप्रीति या अप्रतीतिजनक कारण के होने पर भी सामने वाले व्यक्ति का स्वभाव प्रीति या __ प्रतीति के योग्य होने से मनुष्य उससे मप्रीति या अप्रतीति नहीं कर पाता है। 'पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेति' इत्यादि का अर्थ टीकाकार के संकेतानुसार इस प्रकार भी किया जा सकता है 1. कोई पुरुष दूसरे के मन में यह प्रीति या प्रतीति करता है', ऐसी छाप जमाना चाहता ___ है और जमा भी देता है / 2. कोई पुरुष दूसरे के मन में यह प्रीति या प्रतीति करता है' ऐसी छाप जमाना चाहता __है, किन्तु जमा नहीं पाता। 3. कोई पुरुष दूसरे के मन में 'यह अप्रीति या अप्रतीति करता है' ऐसी छाप जमाना ___चाहता है और जमा भी देता है। 4. कोई पुरुष दूसरे के मन में 'यह अप्रीति या अप्रतीति करता है' ऐसी छाप जमाना ___ चाहता है और जमा नहीं पाता। इसी प्रकार सामने वाले व्यक्ति के प्रात्म-साधक या मूर्ख पुरुष की अपेक्षा भी चारों भंगों की व्याख्या की जा सकती है। उपकार-सूत्र ३६१--चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा–पत्तोवए, पुप्फोवए, फलोवए, छायोवए। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-पत्तोवारुक्खसमाणे, पुष्फोवारुक्खसमाणे, फलोवारुक्खसमाणे, छायोवारुक्खसमाणे। वृक्ष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. पत्रोपग--कोई वृक्ष पत्तों से सम्पन्न होता है। 2. पुष्पोपग-कोई वृक्ष फूलों से सम्पन्न होता है / 2. फलोपग--कोई वृक्ष फलों से सम्पन्न होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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