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________________ 318 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 2. पर-प्रीतिकर, आत्म-प्रीतिकर नहीं-कोई पुरुष पर से प्रीति करता है, किन्तु अपने आप से प्रीति नहीं करता है। 3. आत्म-प्रीतिकर भी, पर-प्रीतिकर भी-कोई पुरुष अपने से भी प्रोति करता है और पर से भी प्रीति करता है। 4. न आत्म-प्रीतिकर न पर-प्रीतिकर-कोई पुरुष न अपने आप से प्रीति करता है और न पर से भी प्रीति करता है (358) / 356 - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेति, पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तियं पवेसेति, अप्पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेति, अप्पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तियं पवेसेति। पुन: पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. प्रीति-प्रवेशेच्छु, प्रीति प्रवेशककोई पुरुष 'दूसरे के मन में प्रीति उत्पन्न करू', ऐसा विचार कर प्रीति उत्पन्न करता है / 2. प्रीति-प्रवेशेच्छु, अप्रीति-प्रवेशक-कोई पुरुष 'दुसरे के मन में प्रीति उत्पन्न करू' ऐसा विचार कर भी अप्रीति उत्पन्न करता है / 3. अप्रीति-प्रवेशेच्छु, प्रीति-प्रवेशक-कोई पुरुष 'दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करू' ऐसा विचार कर भी प्रीति उत्पन्न करता है। 4. अप्रोति-प्रवेशेच्छु, अप्रीति-प्रवेशक-कोई पुरुष दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करू' ऐसा विचार कर अप्रीति उत्पन्न करता है (356) / ३६०-चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा- अप्पणो णाममेगे पत्तियं पवेसेति णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं पवेसेति णो अपणो, एगे अप्पणोधि पत्तियं पवेसेति परस्सवि, एगे णो अपणो पत्तियं पवेसेति णो परस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे---- 1. आत्म-प्रीति-प्रवेशक, पर-प्रीति-प्रवेशक नहीं-कोई पुरुष अपने मन में प्रीति (अथवा प्रतीति) का प्रवेश कर लेते हैं किन्तु दूसरे के मन में प्रोति का प्रवेश नहीं कर पाते। 2. पर-प्रीति-प्रवेशक, प्रात्म-प्रीति-प्रवेशक नहीं-कोई पुरुष दूसरे के मन में प्रीति का प्रवेश कर देते हैं, किन्तु अपने मन में प्रीति का प्रवेश नहीं कर पाते। 3. आत्म-प्रीति-प्रवेशक भी, पर-प्रीति-प्रवेशक भी-कोई पुरुष अपने मन में भी प्रीति का प्रवेश कर पाता है और पर के मन में भी प्रीति का प्रवेश कर देता है। 4. न आत्म-प्रीति-प्रवेशक, न पर-प्रीति-प्रवेशक-कोई पुरुष न अपने मन में प्रीति का प्रवेश कर पाता है और न पर के मन में प्रीति का प्रवेश कर पाता है (360) / विवेचन-संस्कृत टोकाकार ने 'पत्तियं इस प्राकृत पद के दो अर्थ किये हैं-एक-स्वार्थ में 'क' प्रत्यय मानकर प्रीति अर्थ किया है और दूसरा--'प्रत्यय' अर्थात् प्रतीति या विश्वास अर्थ भी किया है / जैसे प्रथम अर्थ के अनुसार उक्त चारों सूत्रों का व्याख्या की गई है, उसी प्रकार प्रतीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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