________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश [317 2. रूप-सम्पन्न, रुत-सम्पन्न नहीं-कोई पक्षी रूप-सम्पन्न होता है, किन्तु स्वर-सम्पन्न नहीं होता, जैसे तोता। 3. रुत-सम्पन्न भी, रूप सम्पन्न भी-कोई पक्षी स्वर-सम्पन्न भी होता है और रूप-सम्पन्न भी, जैसे मोर। 4. न रुत-सम्पन्न, न रूप-सम्पन्न--कोई पक्षी न स्वर-सम्पन्न होता है और न रूप-सम्पन्न ___ जैसे काक (कौमा)। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. रुत-सम्पन्न, रूप-सम्पन्न नहीं--कोई पुरुष मधुर स्वर से सम्पन्न होता है, किन्तु सुन्दर रूप से सम्पन्न नहीं होता। 2. रूप-सम्पन्न, रुत-सम्पन्न नहीं-कोई पुरुष सुन्दर रूप से सम्पन्न होता है, किन्तु मधुर स्वर से सम्पन्न नहीं होता है। 3. रुत-सम्पन्न भी, रूप-सम्पन्न भी-कोई पुरुष स्वर से भी सम्पन्न होता है और रूप से भी सम्पन्न होता है। 4. न रुत-सम्पन्न, न रूप-सम्पन्न-कोई पुरुष न स्वर से ही सम्पन्न होता है और न रूप से ही सम्पन्न होता है (356) / प्रीतिक-अप्रीतिक-सूत्र ३५७–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेति, पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तियं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तियं करेति / पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. प्रीति करू, प्रीतिकर-कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ प्रीति करू' (अथवा अमुक __की प्रतीति करू) ऐसा विचार कर प्रीति (प्रतीति) करता है। 2. प्रीति करू, अप्रीतिकर-कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ प्रीति करू', ऐसा विचार कर भी अप्रीति करता है। 3. अप्रीति करू, प्रीतिकर-कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ अप्रीति करू', ऐसा विचार कर भी प्रीति करता है। 4. अप्रीति करू, अप्रीतिकर-कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ अप्रीति करू', ऐसा विचार कर अप्रीति ही करता है (357) / 358 --- चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--अपणो णाममेगे पत्तियं करेति णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं करेति णो अपणो, एगे अप्पणोवि पत्तियं करेति परस्सवि, एगे णो अपणो पत्तियं करेति जो परस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. आत्म-प्रीतिकर, पर-प्रीतिकर नहीं- कोई पुरुष अपने आप से प्रीति करता है, किन्तु दूसरे से प्रीति नहीं करता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org