________________ 316 ] [ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश __यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त प्रकार के संस्कार को वासनाकाल कहा जाता है / अर्थात् उक्त कषायों की वासना (संस्कार) इतने समय तक रहता है / गोम्मटसार में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उत्कृष्ट वासनाकाल छह मास कहा गया है। भाव-सूत्र ३५५-चत्तारि उदगा पण्णत्ता, त जहा—कद्दमोदए, खंजणोदए, वालुप्रोदए, सेलोदए। एवामेव चउन्विहे भावे पण्णत्ते, त जहा-कद्दमोदगसमाणे, खंजणोदगसमाणे, वालुप्रोदगसमाणे, सेलोदगसमाणे / 1. कदमोदगसमाणं भावमणपविट्ठ जीवे कालं करेइ, रइएसु उबवज्जति / एवं जाव-- 2. [खंजणोदगसमाणं भावमणुपवि? जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति / 3. वालुअोदगसमाणं भावमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, मणुस्सेसु उक्वज्जति] / 4. सेलोदगसमाणं भावमणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति / उदक (जल) चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. कर्दमोदक कीचड़ वाला जल / 2. खंजनोदक-काजलयुक्त जल / 3. वालुकोदक–बालु-युक्त जल / 4. शैलोदक–पर्वतीय जल / इसी प्रकार जीवों के भाव (राग-द्वेष रूप परिणाम) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. कर्दमोदक-समान- अत्यन्त मलिन भाव / 2. खंजनोदक-समान–मलिन भाव / 3. वालुकोदक-समान-अल्प मलिन भाव / 4. शैलोदक-समान-अत्यल्प मलिन या निर्मल भाव / 1. कर्दमोदक-समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो नारकों में उत्पन्न होता है। 2. खंजनोदक-समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो तिर्यग्योनिक जीवों में उत्पन्न होता है। 3. वालुकोदक-समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो मनुष्यों में उत्पन्न होता है। 4. शैलोदक-समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो देवों में उत्पन्न होता है (355) / रुत-रूप-सूत्र ३५६-चत्तारि पक्खो पण्णता, तं जहा--रुतसंपण्णे णाममेगे णो रूपसंपण्णे, रूवसंपण्णे णाममेंगे णो रुतसंपण्णे, एगे रुतसंपण्णेवि रूवसंपणेवि, एगे णो रुतसंपण्णे णो रूवसंपण्णे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, त जहा-रुतसंपण्णे गाममेगे णो रूवसंपण्णे, रूब. संपण्णे णाममेगें णो रुतसंपण्णे, एगें रुतसंपण्णेवि स्वसंपण्णेबि, एगे णो रुतसंपण्णे णो रूवसंपण्णे / चार प्रकार के पक्षी होते हैं। जैसे१. रुत-सम्पन्न, रूप-सम्पन्न नहीं कोई पक्षी स्वर-सम्पन्न (मधुर स्वर वाला) होता है, ___ किन्तु रूप-सम्पन्न (देखने में सुन्दर) नहीं होता, जैसे कोयल / 1. अंतोमुहत्त पक्खं छम्भासं संखऽसंखणंतभवं। संजलणादीयाणं वासण कालो दु नियमेण / / (गो० कर्मकाण्डगाथा) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org