________________ 320 ] [स्थानाङ्गसूत्र 4. छायोपग-कोई वृक्ष छाया से सम्पन्न होता है / इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. पत्रोपग वृक्ष-समान-कोई पुरुष पत्तों वाले वृक्ष के समान स्वयं सम्पन्न रहता है किन्तु दूसरों को कुछ नहीं देता / 2. पुष्पोपग वृक्ष-समान-कोई पुरुष फूलों वाले वृक्ष के समान अपनी सुगन्ध दूसरों को देता है। 3. फलोपग वृक्ष-समान--कोई पुरुष फलों वाले वृक्ष के समान अपना धनादि दूसरों को देता है। 4. छायोपग वृक्ष-समान-कोई पुरुष छाया वाले वृक्षों के समान अपनी शीतल छाया में दूसरों को आश्रय देता है (361) / विवेचन--उक्त अर्थ लौकिक पुरुषों की अपेक्षा से किया गया है। लोकोत्तर पुरुषों की अपेक्षा चारों भंगों का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए--- 1. कोई गुरु पत्तों वाले वृक्ष के समान अपनी श्र त-सम्पदा अपने तक ही सीमित रखता है। 2. कोई गुरु फूल वाले वृक्ष के समान शिष्यों को सूत्र-पाठ की वाचना देता है। 3. कोई गुरु फल वाले वृक्ष के समान शिष्यों को सूत्र के अर्थ की वाचना देता है। 4. कोई गरु छाया वाले वक्ष के समान शिष्यों को सत्रार्थ का परावर्तन एवं अपाय-संरक्षण आदि के द्वारा निरन्तर आश्रय देता है। आश्वास-सत्र 362 –भारण्णं वहमाणस्स चत्तारि प्रासासा पण्णता, तं जहा१. जत्थ णं अंसाप्रो अंसं साहरइ, तत्थवि य से एगे पासासे पण्णत्ते / 2. जस्थवि य णं उच्चारं वा पासवणं वा परिवेति, तत्थवि य से एगे पासासे पण्णत्ते / 3. जत्थवि य णं णागकुमारावासंसि वा सुवण्णकुमारावासंसि वा वासं उवेति, तथवि य से एगे पासासे पण्णत्त / 4. जवि य णं आवकहाए चिट्ठति, तथवि य से एगे प्रासासे पण्णत्त / एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि पासासा पण्णत्ता, तं जहा-- 1. जत्थवि य णं सीलव्वत-गुणव्वत-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवज्जति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते। 2. जयवि य णं सामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपालेइ, तत्थवि य से एगे पासासे पण्णत्ते / 3. जत्थवि य णं चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्मं अणुपालेइ, तत्थवि य से एगे पासासे पण्णत्त / 4. जत्यवि य णं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-भूसणा-भूसिते भत्तपाण-पडियाइदिखते पाम्रोवगते कालमणवकंखमाणे विहरति, तत्थवि य से एगे प्रासासे पण्णत्ते / भार को वहन करने वाले पुरुष के लिए चार आश्वास (श्वास लेने के स्थान या विश्राम) कहे गये हैं। जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org