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________________ चतुर्थ स्थान--द्वितीय उद्देश ] [ 307 ३३७---जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बहिया चत्तारि भरहाई, चत्तारि एरवयाई / एवं जहा सदुद्देसए तहेव गिरवसेसं भाणियब्वं जाव चत्तारि मदरा चत्तारि मंदरचूलियारो। जम्बूद्वीप नामक द्वीप के बाहर (धातकीषण्ड और पुष्करवर द्वीप में) चार भरत क्षेत्र मोर चार ऐरवत क्षेत्र हैं। इस प्रकार जैसे शब्दोद्देशक (दूसरे स्थान के तीसरे उद्देशक) में जो बतलाया गया है, वह सब पूर्ण रूप से यहां जान लेना चाहिए। (वहां जो दो-दो की संख्या में बतलाये गये हैं, वे यहां चारचार जानना चाहिए। धातकीषण्ड में दो मन्दर और दो मन्दरचूलिका, तथा पुष्करवर द्वीप में भी दो मन्दर और दो मन्दरचूलिका, इस प्रकार जम्बूद्वीप के बाहर चार मन्दर और चार मन्दर-चूलिका कहो गई है (337) / नन्दीश्वर-वर द्वीप-सूत्र 338 --णंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल-विक्वंमस्स बहुमझदेसभाग चउदिसि चत्तारि अंजणगपव्वता पण्णत्ता. त जहा-पुरथिमिल्ले अंजणगपवते, दाहिणिल्ले अंजणगपन्वते, पच्चत्विमिल्ले अंजणगपन्वते, उत्तरिल्ले अंजणगपन्वते / ते णं अंजणगपव्वता चउरासीति जोयणसहस्साइं उच्चत्तेणं, एग जोयणसहस्सं उम्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं, तदणंतरं च णं मायाए-मायाए परिहायमाणा-परिहायमाणा उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पप्णता। मूले इक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, उरि तिषिण-तिष्णि जोयणसहस्साई एगच बावट्ठजोयणसतं परिक्खेवेणं / मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वअंजणमया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिक्कंकड-च्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणोया अभिरूवा पडिरूवा। नन्दीश्वरवर द्वीप के चक्रवाल-विष्कम्भ के बहुमध्य देशभाग में (ठीक बीचों-बीच) चारों दिशाओं में चार अंजन पर्वत कह गये हैं / जैसे 1. पूर्वी अंजन पर्वत, 2. दक्षिणी अंजन पर्वत 3. पश्चिमी अंजन पर्वत 4. उत्तरी अंजन पर्वत / उनकी ऊर्ध्व ऊंचाई चौरासी हजार योजन और गहराई भूमितल में एक हजार योजन कही गई है / मूल में उनका विस्तार दश हजार योजन है। तदनन्तर थोड़ी-थोड़ी मात्रा से हीन-हीन होता हुआ ऊपरी भाग में एक हजार योजन विस्तार कहा गया है। मूल में उन अंजनपर्वतों की परिधि इकतीस हजार छह सौ तेईस योजन और ऊपरी भाग में तीन हजार एक सौ बासठ योजन की है। वे मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और अन्त में तनुक (और अधिक संक्षिप्त) हैं। वे गोपुच्छ के आकार वाले हैं। वे सभी ऊपर से नीचे अंजनरत्नमयी हैं, स्फटिक के समान स्वच्छ पारदर्शी, चिकने, चमकदार, शाण पर घिसे हुए से, प्रमार्जनी से साफ किये हुए सरीखे, रज-रहित, निर्मल, निष्पंक, निष्कण्टक छाया वाले, प्रभा-युक्त, रश्मि-युक्त, उद्योत-सहित, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय हैं (338) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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