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________________ चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 261 4. पराजित्य पुनः पराजेत्रो--कोई सेना एक बार पराजित होकर के पुनः पराजित होती है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. जित्वा पुन: जेता-कोई पुरुष कष्टों को जीत कर फिर भी जीतता है। 2. जित्वा पुनः पराजेता--कोई पुरुष कष्टों को पहले जीतकर पुनः (बाद में) हार जाता है। 3. पराजित्य पुन: जेता--कोई पुरुष पहले हार कर पुनः जीतता है। 4. पराजित्य पुनः पराजेता–कोई पुरुष पहले हार कर फिर भी हारता है (281) / माया-सूत्र २८२--चत्तारि केतणा पण्णत्ता, त जहा--सीमूलकेतणए, मेंढविसाणकेतणए, गोमुत्तिकेतणए, अवलेहणियकेतणए। एवामेव चउविधा माया पण्णता, त जहा–बंसीमूलकेतणासमाणा, जाव (मेंढविसाणकेतणा. समाणा, गोमुत्तिकेतणासमाणा), अवलेहणियकेतणासमाणा / 1. वंसीमूलकेतणासमाणं मायमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, णेरइएसु उववज्जति / 2. मेंढविसाणकेतणासमाणं मायमणुपविट्ट जीवे कालं करेति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति / 3. गोमत्ति जाव (केतणासमाणं मायमणपवि? जीवे) कालं करेति, मणुस्सेसु उववज्जति / 4. अवलेहणिय जाव (केतणासमाणं मायमणुपविट्ठ जोवे कालं करेति), देवेसु उववज्जति / केतन (वक्र पदार्थ) चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-- 1. वंशीमूल केतनक, वांस की जड़ का वक्रपन / 2. मेढ़विषाणकेतनक-मेढ़े के सींग का वक्रपन / 3. गोमूत्रिका केतनक-चलते बैल की मूत्र-धारा का वक्रपन / 4. अवलेखनिका केतनक-छिलते हुए बाँस की छाल का वक्रपन / इसी प्रकार माया भी चार प्रकार की कही गई है, जैसे१. वंशीमूल केतनसमाना-बांस की जड़ के समान अत्यन्त कुटिल अनन्तानुबन्धी माया / 2. मेढ़विषाण केतनसमाना-मेढ़ के सींग के समान कुटिल अप्रत्याख्यानावरण माया / 3. गोमूत्रिका केतनसमाना-गोमूत्रिका केतनक के समान प्रत्याख्यानावरण माया / 4. अवलेखनिका केतनकसमाना-बांस के छिलके के समान संज्वलन माया। 1. वंशीमूल के समान माया में प्रवर्तमान जीव काल (मरण) करता है तो नारकी जीवों में उत्पन्न होता है। 2. मेष-विषाण के समान माया में प्रवर्तमान जीव काल करता है तो तिर्यग्योनि के जीवों में उत्पन्न होता है। 3. गोमूत्रिका के समान माया में प्रवर्तमान जीव काल करता है तो मनुष्यों में उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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