________________ चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश ] [283 गहरे-सूत्र २६४–चउविवहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा-उवसंपज्जामित्तेगा गरहा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, किंचिमिच्छामित्तेगा गरहा, एवंपि पण्णत्तेगा गरहा / ___गर्दा चार प्रकार की कही गई है। जैसे 1. उपसम्पदारूप गट-अपने दोष को निवेदन करने के लिए गुरु के समीप जाऊं, इस प्रकार का विचार करना, यह एक गहरे है। 2. विचिकित्सारूप गहरे-अपने निन्दनीय दोषों का निराकरण करू, इस प्रकार का विचार करना, यह दूसरी गर्दी है। 3. मिच्छामिरूप गर्दी-जो कुछ मैंने असद् आचरण किया है, वह मेरा मिथ्या हो, इस प्रकार के विचार से प्रेरित हो ऐसा कहना यह तीसरी गौं है / 4. एवमपि प्रज्ञत्तिरूप गर्दी-ऐसा भी भगवान् ने कहा है कि अपने दोष की गहरे (निन्दा) करने से भी किये गये दोष की शुद्धि होती है, ऐसा विचार करना, यह चौथी गर्दी है (264) / अलमस्तु (निग्रह)-सूत्र २६५–चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा-अप्पणो णाममे गे अलमंथ भवति णो परस्स, परस्स णाममे गे अलमंथू भवति णो अप्पणो, एग अप्पणोवि अलमंथ भवति परस्सवि, एगे णो अपणो अलमथ भवति णो परस्स / पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे 1. प्रात्म-अलमस्तु, पर अलमस्तु नहीं--कोई पुरुष अपना निग्रह करने में समर्थ होता है, किन्तु दूसरे का निग्रह करने में समर्थ नहीं होता। 2. पर-अलमस्तु, आत्म-अलमस्तु नहीं--कोई पुरुष दूसरे का निग्रह करने में समर्थ होता है, अपना निग्रह करने में समर्थ नहीं होता। 3. आत्म-अलमस्तु भी और पर-अलमस्तु भी--कोई पुरुष अपना निग्रह करने में भी समर्थ होता है और पर के निग्रह करने में भी समर्थ होता है। 4. न प्रात्म-अलमस्तु, न पर-अलमस्तु -कोई पुरुष न अपना निग्रह करने में समर्थ होता है और न पर का निग्रह करने में समर्थ होता है (265) / विवेचन-'अलमस्तु' का दूसरा अर्थ है-निषेधक अर्थात् निषेध करने वाला; कुकृत्य में प्रवृत्ति को रोकने वाला। इसकी चौभंगी भी उक्त प्रकार से ही समझ लेनी चाहिए। ऋजु-वक-सूत्र २६६--चत्तारि मग्गा पण्णत्ता, तं जहा-उज्जू णाममे गे उज्जू, उज्जू णामम गे वंके, वंके णाममग उज्ज, वंके णामम गवके / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org