________________ 282] [ स्थानाङ्गसूत्र 1. आत्म-तन्त्रकर---अपने स्वाधीन होकर कार्य करने वाला पुरुष, किन्तु 'परतन्त्र' होकर कार्य नहीं करने वाला जैसे-तीर्थकर / 2. परतन्त्रकर, किन्तु आत्मतन्त्रकर नहीं / जैसे- साधु / 3. प्रात्मतन्त्रकर भी और परतन्त्रकर भी जैसे----प्राचार्यादि / 4. न अात्मतन्त्रकर और न परतन्त्रकर / जैसे—शठ पुरुष / चौथी व्याख्या 'प्रायंतकर' का संस्कृतरूप 'आत्मायत्त-कर' मान कर इस प्रकार की है 1. आत्मायत्त-कर, परायत्त-कर नहीं-धन आदि को अपने अधीन करने वाला, किन्तु दूसरे के अधीन नहीं करने वाला पुरुष / 2. अपने धनादि को पर के अधीन करने वाला, किन्तु अपने अधीन नहीं करने वाला पुरुष / 3. धनादि को अपने अधीन करने वाला और पर के अधीन भी करने वाला पुरुष / 4. धनादि को न स्वाधीन करने वाला और न पराधीन करने वाला पुरुष / २६२-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--प्रायंतमे णाममेग णो परंतमे, परंतमे णाममेगे जो प्रायंतमे, एग आयंतमेवि परंतमेबि, एग णो प्रायंतमें णो परंतमे / पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. आत्म-तम, किन्तु पर-तम नहीं-जो अपने आपको खिन्न करे, दूसरे को नहीं। 2. पर-तम, किन्तु प्रात्म-तम नहीं--जो पर को खिन्न करे, किन्तु अपने को नहीं / 3. आत्म-तम भी और पर-तम भी--जो अपने को भी खिन्न करे और पर को भी खिन्न करे / 4. न आत्म-तम, न पर-तम-जो न अपने को खिन्न करे और न पर को खिन्न करे / (262) विवेचन-संस्कृत टीकाकार ने उक्त अर्थ 'आत्मानं तमयति खेदयतीति आत्मतमः' निरुक्ति करके किया है / अथवा करके तम का अर्थ अज्ञान और क्रोध भी अर्थ किया है। तदनुसार चारों भंगों का. अर्थ इस प्रकार है 1. जो अपने में अज्ञान या क्रोध उत्पन्न करे, पर में नहीं। 2. जो पर में अज्ञान या क्रोध उत्पन्न करे, अपने में नहीं। 3. जो अपने में भी और पर में भी अज्ञान या क्रोध उत्पन्न करे। 4. जो न अपने में अज्ञान और क्रोध उत्पन्न करे, न दूसरे में / २६३-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—आयंदमे णाममेग णो परंदमे, परंदमे णाममेग यो प्रायंदमे, एग प्रायंदमेवि, परंदमवि, एग गो पायंदम णो परंदम / पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं जैसे१. आत्म-दम, किन्तु पर-दम नहीं-जो अपना दमन करे, किन्तु दूसरे का दमन न करे। 2. पर-दम, किन्तु आत्म-दम नहीं-जो पर का दमन करे, किन्तु अपना दमन न करे। 3- आत्म-दम भी और पर-दम भी जो अपना दमन भी करे और पर का दमन भी करे / 4. न प्रात्म-दम, न पर-दम-जो न अपना दमन करे और न पर का दमन करे (263) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org