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________________ जैन दर्शन अनेकान्तवादी दप्टिकोण को लिये हुए है। उस का यह वच आघोष है कि न केवल विद्या से मोक्ष है और न केवल ग्राचरण से। वह इन दोनों के समन्वित रूप को मोक्ष का साधन स्वीकार करता है। भगवान महावीर की दृष्टि से विश्व की सम्पूर्ण समस्याओं का मूल हिसा और परिग्रह है। इन का त्याग करने पर ही बोधि की प्राप्ति होती है। मत्य का अनुभव होता है। इस में प्रमाण के दो भेद बताये हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष / प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं—केवलज्ञान प्रत्यक्ष और नो-केवलज्ञान प्रत्यक्ष / इस प्रकार इस में तत्त्व, प्राचार, क्षेत्र, काल, प्रभति अनेक विषयों का निरूपण है। विविध दृष्टियों से इस स्थान का महत्त्व है। कितनी ही ऐसी बातें इस स्थान में आयी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं / तृतीय स्थान में तीन की संख्या से सम्बन्धित वर्णन है। यह चार उद्देशकों में विभक्त है। इस में तात्त्विक विषयों पर जहाँ अनेक त्रिभंगियाँ हैं, वहाँ मनोवैज्ञानिक और साहित्यिक विषयों पर भी त्रिभंगियाँ हैं। त्रिभंगियों के माध्यम से शाश्वत सत्य का मार्मिक ढंग से उद्घाटन किया गया है। मानव के तीन प्रकार हैं। कितने ही मानव बोलने के बाद मन में अत्यन्त आह्लाद का अनुभव करते हैं और कितने ही मानव भयंकर दुःख का अनुभव करते हैं तो कितने ही मानव न सुख का अनुभव करते हैं और न दुःख का अनुभव करते हैं। जो व्यक्ति सात्त्विक, हित, मित, आहार करते हैं, वे पाहार के बाद सुख की अनुभूति करते हैं। जो लोग अहितकारी या मात्रा से अधिक भोजन करते हैं, वे भोजन करने के पश्चात् दःख का अनुभव करते हैं। जो साधक ग्रामस्थ होते हैं, वे ग्राहार के बाद बिना सुख-दुःख अनुभव किये तटस्थ रहते हैं / त्रिभंगी के माध्यम से विभिन्न मनोवृत्तियों का सुन्दर विश्लेषण हुअा है। श्रमण-प्राचार संहिता के सम्बन्ध में तीन बातों के माध्यम से ऐसे रहस्य भी बताये हैं जो अन्य आगम साहित्य में बिखरे पड़े हैं। श्रमण तीन प्रकार के पात्र रख सकता है—तूम्बा, काष्ठ, मिट्टी का पात्र / निग्रन्थ, निग्रन्थियाँ तीन कारणों से वस्त्र धारण कर सकते हैं--लज्जानिबारण, जुगुप्सानिवारण और परीपह-निवारण / दशवकालिक 8 में वस्त्रधारण के संयम और लज्जा ये दो कारण बताये हैं। उत्तराध्ययन में तीन कारण हैंलोकप्रतीति, संयमयात्रा का निर्वाह और मुनित्व की अनुभूति / प्रस्तुत प्रागम में जुगुप्सा निवारण यह नया कारण दिया है। स्वयं की अनुभूति लज्जा है और लोकानुभूति जुगुप्सा है। नग्न व्यक्ति को निहार कर जन-मानस में सहज घणा होती है। ग्रावश्यक चणि, महावीरचरियं, ग्रादि में यह स्पष्ट बताया गया है कि भगवान महावीर को नग्नता के कारण अनेक बार कष्ट सहन करने पड़े थे। प्रस्तुत स्थान में अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है। तीन कारणों से अल्पवष्टि, अनावष्टि होती है। माता-पिता और प्राचार्य प्रादि के उपकारों से उऋण नहीं बना जा सकता। चतुर्थ स्थान में चार की संख्या से सम्बद्ध विषयों का आकलन किया गया है। यह स्थान भी चार उद्देशकों में विभक्त है / तत्त्व जैसे दार्शनिक विषय को चौ-भंगियों के माध्यम से सरल रूप में प्रस्तुत किया गया है। अनेक चतुर्भङ्गियाँ मानव-मन का सफल चित्रण करती हैं। वृक्ष, फल, वस्त्र प्रादि वस्तुओं के माध्यम से मानव की मनोदशा का गहराई से विश्लेषण किया गया है। जैसे कितने ही वृक्ष मूल में सीधे रहते हैं, पर ऊपर जाकर दे बन जाते हैं। कितने ही मूल में सीधे रहते हैं और सीधे ही ऊपर बढ़ जाते हैं। कितने ही वृक्ष मुल में भी टेढ़े होते हैं और ऊपर जाकर के भी टेढ़े ही होते हैं / और कितने ही वृक्ष मूल में टेढे होते हैं और ऊपर जाकर सीधे हो हाते हैं। इसी तरह मानवों का स्वभाव होता है। कितने ही व्यक्ति मन से सरल होते हैं और व्यवहार से भी। कितने ही व्यक्ति हृदय से सरल होते हुये भी व्यवहार से कुटिल होते हैं। कितने ही व्यक्ति 98. दशवकालिक सूत्र, अध्य. 6, गाथा–१९ ! 99. उत्तराध्ययन मुत्र, अ. 23, गाथा--३२ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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