________________ मन से सरल नहीं होते और बाहय परिस्थितिवश सरलता का प्रदर्शन करते हैं, तो कितने ही व्यक्ति अन्तर से भी कुटिल होते हैं। विभिन्न मनोवत्ति के लोग विभिन्न युग में होते हैं। देखिये कितनी मामिक चौभगीं-कितने ही मानव आम्रप्रलम्ब कोरक के सदश होते हैं, जो सेवा करने वाले का योग्य समय में योग्य उपकार करते हैं। कितने ही मानव तालप्रलम्ब कोरक के सदश होते हैं, जो दीर्घकाल तक सेवा करने वाले का अत्यन्त कठिनाई से योग्य उपकार करते हैं। कितने ही मानव बल्लीप्रलम्ब कोरक के सदश होते हैं, जो सेवा करने वाले का सरलता से शीघ्र ही उपकार कर देते हैं। कितने ही मानव मेष-विषाण कोरक के सदश होते हैं, जो सेवा करने वाले को केवल मधुर-वाणी के द्वारा प्रसन्न रखना चाहते हैं किन्तु उसका उपकार कुछ भी नहीं करना चाहते ! प्रसंगवश कुछ कथानों के भी निर्देश प्राप्त होते हैं, जैसे अन्तक्रिया करने वाले चार व्यक्तियों के नाम मिलते हैं। भरत चक्रवर्ती, गजसुकुमाल, मम्राट् सनत्कुमार और मरुदेवी। इस तरह विविध विषयों का संकलन है। यह स्थान एक तरह से अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक सरस और ज्ञानवर्धक है। पांचवें स्थान में पांच की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन हन्ना है। यह स्थान तीन उद्देशकों में विभाजित है। तात्विक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष, योग, प्रभति अनेक विषय इस स्थान में पाये हैं। कोई वस्तु अशुद्ध होने पर उसकी शुद्धि की जाती है। पर शुद्धि के साधन एक सदृश नहीं होते। जैसे मिट्टी शुद्धि का साधन है। उससे बर्तन ग्रादि साफ किये जाते हैं। पानी शुद्धि का साधन है। उससे वस्त्र आदि स्वच्छ किये जाते हैं। अग्नि शुद्धि का साधन है। उससे स्वर्ण, रजत, आदि शुद्ध किये जाते हैं / मन्त्र भी शुद्धि का साधन है, जिससे वायुमण्डल शुद्ध होता है / ब्रह्मचर्य शुद्धि का साधन है / उमसे आत्मा विशुद्ध बनता है। प्रतिमा साधना की विशिष्ट पद्धति है। जिसमें उत्कृष्ट तप की साधना के साथ कायोत्सर्ग की निर्मल साधता चलती है। इसमें भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा, और भद्रोत्तय प्रतिमानों का उल्लेख है। जाति, कूल, कर्म, शिल्प और लिङ्ग के भेद से पाँच प्रकार की आजीविका का वर्णन है। गंगा, यमुना, सरय, ऐरावती और माही नामक महानदियों को पार करने का निषेध किया गया है। चौवीस तीर्थंकरों में से वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि पार्श्व और महावीर ये पाँच तीर्थंकर कुमारावस्था में प्रबजित हये थे। आदि अनेक महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्रस्तुत स्थान में हुये हैं। छट्रे स्थान में छह की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन किया है। यह स्थान उद्देशकों में विभक्त नहीं है / इसमें तात्विक, दार्शनिक, ज्योतिष और संघ-सम्बन्धी अनेक विषय वणित हैं। जैन दर्शन में पद्रव्य का निरूपण है / इनमें पाँच अमूर्त हैं और एक-पुद्गल द्रव्य मूर्त हैं। गण को वह अनगार धारण कर सकता है जो छह कसौटियों पर खरा उतरता हो / (1) थद्धाशीलपुरुप (2) सत्यवादीपुरुष (3) मेधावी पुरुष (4) बहुश्रु तपुरुष (5) शक्तिशाली पुरुष (6) कलहरहित पुरुष / जाति से प्रार्य मानव छह प्रकार का होता है। अनेक अनछुए पहलुओं पर भी चिन्तन किया गया है / जाति और कुल से प्रार्य पर चिन्तन कर आर्य की एक नयी परिभाषा प्रस्तुत की है। इन्द्रियों से जो सुख प्राप्त होता है वह अस्थायी और क्षणिक है, यथार्थ नहीं। जिन इन्द्रियों से मुखानुभूति होती है, उन इन्द्रियों से परिस्थिति-परिवर्तन होने पर दु:खानुभूति भी होती है। इसलिये इस स्थान में सुख और दुःख के छह-छह प्रकार बताये हैं। मानव को कैसा भोजन करना चाहिये ? जैन दर्शन ने इस प्रश्न का उत्तर अनेकान्तदृष्टि से दिया है। जो भोजन साधना की दष्टि से विघ्न उत्पन्न करता हो, वह उपयोगी नहीं है। और जो भोजन साधना के लिये महायक बनता है, वह भोजन उपयोगी है। इसलिये श्रमण छह कारणों से भोजन कर सकता है और छह र उपयोगी गई तोर जो भी [ 34 [ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org