________________ वाली घटनाओं का संकेत करें, इसमें किसी भी प्रकार का आश्चर्य नहीं है। जैसे-नवम स्थान में आगामी उमर्पिणी-काल के भावी तीर्थंकर महापद्म का चरित्र दिया है। और भी अनेक भविष्य में होने वाली घटनाओं का उल्लेख है। दूसरी बात यह है कि पहले पागम श्र तिपरम्परा के रूप में चले आ रहे थे। वे प्राचार्य स्कन्दिल और देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय लिपिबद्ध किये गये / उस समय वे घटनाएं, जिनका प्रस्तुत आगम में उल्लेख है, घटित हो चुकी थीं। अत: जन-मानस में भ्रान्ति उत्पन्न न हो जाए, इस दृष्टि से प्राचार्य प्रवरों ने भविष्यकाल के स्थान पर भूतकाल की क्रिया देकर उस समय तक घटित घटनाएँ इसमें संकलित कर दी हों। इस प्रकार दो-चार घटनाएँ भूतकाल की क्रिया में लिखने मात्र से प्रस्तुत आगम गणधरकृत नहीं है, इस प्रकार प्रतिपादन करना उचित नहीं है। यह संख्या-निबद्ध पागम है। इसमें सभी प्रतिपाद्य विषयों का समावेश एक से दस तक की संख्या में किया गया है। एतदर्थ ही इसके दश अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में संग्रहनय की दृष्टि से चिन्तन किया गया है / संग्रहनय अभेद दृष्टिप्रधान है। स्वजाति के विरोध के बिना समस्त पदार्थों का एकत्व में संग्रह करना अर्थात् पास्तित्वधर्म को न छोड़कर सम्पूर्ण-पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं। इसलिये सम्पूर्ण पदार्थों का सामान्य रूप से ज्ञान करना संग्रहनय है। आत्मा एक है। यहाँ द्रव्यदृष्टि से एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। जम्बूद्वीप एक है। क्षेत्र की दृष्टि से एकत्व विवक्षित है। एक समय में एक ही मन होता है। यह काल की दृष्टि से एकत्व निरूपित है। शब्द एक है। यह भाव की दृष्टि से एकत्व का प्रतिपादन है। इस तरह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तुतत्त्व पर चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत स्थान में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की सुचनाएँ भी हैं। जैसे-भगवान् महावीर अकेले ही परिनिर्वाण को प्राप्त हये थे। मुख्य रूप से तो द्रव्यानुयोग और चरणकरणानुयोग से सम्बन्धित वर्णन है। प्रत्येक अध्ययन की एक ही संख्या के लिये स्थान शब्द व्यवहृत हुया है। प्राचार्य अभयदेव ने "स्थान के साथ अध्ययन भी कहा है / 7 अन्य अध्ययनों की अपेक्षा प्राकार की दृष्टि से यह अध्ययन छोटा है। बीज रूप से जिन विषयों का संकेत इस स्थान में किया गया है, उनका विस्तार अगले स्थानों में उपलब्ध है। अाधार की दृष्टि से प्रथम स्थान का अपना महत्त्व है। द्वितीय स्थान में दो की संख्या से सम्बद्ध विषयों का वर्गीकरण किया गया है। इस स्थान का प्रथम सूत्र है--"जदत्थि णं लोगे तं सब्वं दुपयोग्रारं"। जैन दर्शन चेतन और अचेतन ये दो मूल तत्त्व मानता है / शेष सभी भेद-प्रभेद उसके अवान्तर प्रकार हैं। यों जैन दर्शन में अनेकान्तवाद को प्रमुख स्थान है। अपेक्षादष्टि से वह द्वैतवादी भी है और अद्वैतवादी भी है / संग्रहनय की दृष्टि से अद्वैत मत्य है / चेतन में अचेतन का और अचेतन में चेतन का अत्यन्ताभाव होने से द्वैत भी सत्य है। प्रथम स्थान में अद्वैत का निरूपण है, तो द्वितीय स्थान में @त का प्रतिपादन है / पहले स्थान में उद्देशक नहीं है, द्वितीय स्थान में चार उद्देशक हैं। पहले स्थान की अपेक्षा यह स्थान बड़ा है। प्रस्तुत स्थान में जीव और अजीव, त्रस और स्थावर, सयोनिक और अयोनिक, आयुरहित और आयु महित, धर्म और अधर्म, बन्ध और मोक्ष, आदि विषयों की संयोजना है। भगवान महावीर के युग में मोक्ष के सम्बन्ध में दार्शनिकों की विविध-धारणाएं थीं। कितने ही विद्या से मोक्ष मानते थे और कितने ही नाचरण से! 97. तत्र च दशाध्ययनानि -स्थानाङ्ग वृत्ति, पत्र–३ [32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org