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________________ स्थानाङ्ग और समवाया और इन दोनों नागमों में विषय को पधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी गई है। संख्या के आधार पर विपय का संकलन-ग्राकलन किया गया है। एक विषय की दुसरे विषय के साथ इस में सम्बन्ध की अन्वेषणा नहीं की जा सकती। जीव, पुदगल, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, प्राचार, मनोविज्ञान, आदि शताधिक विषय बिना किसी क्रम के इस में संकलित किये गये हैं। प्रत्येक विषय पर विस्तार से चिन्तन न कर संख्या की दृष्टि से अाकलन किया गया है। प्रस्तुत प्रागम में अनेक-ऐतिहासिक सत्य-कथ्य रहे हुए हैं। यह एक प्रकार से कोश की शैली में ग्रथित प्रागम है, जो स्मरण करने की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। जिस युग में प्रागम-लेखन की परम्परा नहीं थी, संभवत: उस समय कण्ठस्थ रखने को सुविधा के लिये यह शैली अपनाई गयी हो। यह शैली जैन परम्परा के प्रागमों में ही नहीं, वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त होती है। महाभारत के वनपर्व, अध्याय एक सौ चौतीस में भी इसी शैली में विचार प्रस्तुत किये गये हैं। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गल पअति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में यही शैली दृष्टि-गोचर होती है। जैन आगम साहित्य में तीन प्रकार के स्थबिर बताये है। उन में श्रतस्थविर के लिये 'ठाण-समवायधरे' . यह विशेषण पाया है। इस विशेषण से यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत प्रागम का कितना अधिक महत्त्व रहा है। प्राचार्य अभयदेव ने स्थानाङ्ग की वाचना कब लेनी चाहिये, इस सम्बन्ध में लिखा है कि दीक्षा-पर्याय की दृष्टि से पाठवें वर्ष में स्थानाडकी वाचना देनी चाहिये। यदि पाठवें वर्ष से पहले कोई वाचना देता है तो उसे ग्राना भंग आदि दोष लगते हैं। व्यवहारसूत्र के अनुसार स्थानाज और समवायांग के ज्ञाता को ही प्राचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इसलिये इस अंग का कितना गहरा महत्त्व रहा हा है, यह इम विधान से स्पष्ट है।' ___ समवायाङ्ग और नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग का परिचय दिया गया है / नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग की जो विषयसूची आई है, वह समवायाङ्ग की अपेक्षा संक्षिप्त है। समवायाङ्ग अङ्ग होने के कारण नन्दीसूत्र से बहुत प्राचीन है, समवायाङ्ग की अपेक्षा नन्दीसूत्र में विषय सूची संक्षिप्त क्यों हुई ? यह प्रागम-मर्मज्ञों के लिये चिन्तनीय प्रश्न है। समवायाङ्ग के अनुसार स्थानाङ्ग की विषयसूची इस प्रकार है / (1) स्वसिद्धान्त, परसिद्धान्त और स्व-पर-सिद्धान्त का वर्णन है। (2) जीव, अजीव और जीवाजीव का कथन / (3) लोक, अलोक और लोकालोक का कथन / (4) द्रव्य के गुण, और विभिन्न क्षेत्रकालवी पर्यायों पर चिन्तन / (5) पर्वत, पानी, समुद्र, देव, देवों के प्रकार, पुरुषों के विभिन्न प्रकार, स्वरूप गोत्र, नदियों, निधियां, और ज्योतिष्क देवों की विविध गतियों का वर्णन / (6) एक प्रकार, दो प्रकार, यावत दस प्रकार के लोक में रहने वाले जीवों और पूदगनों का निरूपण किया गया है। नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग को विषयसूची इस प्रकार है-प्रारम्भ में तीन नम्बर तक समवायाङ्ग की तरह ही विषय का निरूपण है किन्तु व्युत्क्रम से है। चतुर्थ और पांचवें नम्बर की सूची बहुत ही संक्षेप में है। जैसे टङ्क, 89. ववहारसुत्त, सूत्र 18, पृ. १७५—मुनि कन्हैयालाल 'कमल' 90. ठाणं-समवानोऽवि य अंगे ते अठ्ठवासस्स-अन्यथा दानेऽस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा: -स्थानाङ्गटीका 91. ठाण-समवायधरे कप्पइ पायरित्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिमित्तए। ---व्यवहारसूत्र-उ-३ सू-६८ / [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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