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________________ गम्भीरता को लिये हये है। तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म व गहन विश्लेषण उस में है। पाश्चात्य चिन्तक डॉ. हर्मन जेकोवी ने अंगशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। वे अंमशास्त्र को वस्तुत: जैनश्रत मानते हैं, उसी के आधार पर उन्होंने जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया है, और वे उस में सफल भी हए हैं।८३ 'जैन अागम साहित्य-मनन और मीमांसा' ग्रन्थ में मैंने बहत विस्तार के साथ मागम-साहित्य के हर पहल पर चिन्तन किया है। विस्तारभय से उन सभी विषयों पर चिन्तन न कर उस ग्रन्थ को देखने का सूचन करता हूं। यहाँ अब हम स्थानांगसूत्र के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे। स्थानाङ्ग-स्वरूप और परिचय द्वादशांगी में स्थानांग का ततीय स्थान है। यह शब्द 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हया है। 'स्थान' शब्द अनेकार्थी है। प्राचार्य देववाचक 4 ने और गुणधर ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव और पुदगल के विविध भाव वर्णित हैं, इसलिये इस का नाम 'स्थान' रखा गया है। जिनदास गणि महत्तर ने लिखा है जिसका स्वरूप स्थापित किया जाय व ज्ञापित किया जाय वह स्थान है। प्राचार्य हरिभद्र ने कहा है—जिस में जीवादि का व्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया जाता है, वह स्थान है। 'उपदेशमाला' में स्थान का अर्थ "मान" अर्थात् परिमाण दिया है। प्रस्तुत प्रागम में तत्त्वों के एक से लेकर दश तक संख्या वाले पदार्थों का उल्लेख है, अतः इसे 'स्थान' कहा गया है / स्थान शब्द का दूसरा अर्थ "उपयुक्त' भी है। इस में तत्त्वों का क्रम से उपयुक्त चुनाव किया गया है। स्थान शब्द का तृतीय अर्थ "विधान्तिस्थल' भी है, और अंग का सामान्य अर्थ "विभाग" है। इस में संख्याक्रम से जीव, पुद्गल, आदि की स्थापना की गई है / अतः इस का नाम 'स्थान' या 'स्थानाङ्ग है। प्राचार्य गुणधर 8 ने स्थानाङ्ग का परिचय प्रदान करते हुये लिखा है कि स्थानाङ्ग में संग्रहनय की दृष्टि से जीव की एकता का निरूपण है / तो व्यवहार नय की दृष्टि से उस की भिन्नता का भी प्रतिपादन किया गया है। संग्रहनय की अपेक्षा चैतन्य गुण की दृष्टि से जीव एक है। व्यवहार नय की दृष्टि से प्रत्येक जीव अलग-अलग है। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से वह दो भागों में विभक्त है। इस तरह स्थानांङ्ग सूत्र में संख्या की दृष्टि से जीव, अजीव, प्रभृति द्रव्यों की स्थापना की गयी है। पर्याय की दृष्टि से एक तत्त्व अनन्त भागों में विभक्त होता है। और द्रव्य को दृष्टि से वे अनन्त भाग एक तत्त्व में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार भेद और अभेद को दृष्टि से व्याख्या, स्थानाङ्ग में है। 83. जैनसूत्राज---भाग 1 प्रस्तावना पृष्ठ----९ 84. ठाणेणं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्ढीए दसट्टागगविवढ़ियाणं भावाणं परूवणा प्रापविज्जति -नन्दीसूत्र, सूत्र 82 85. ठाणं णाम जीवपुद्गलादीणामेगादिएगुत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि। –कसायपाहुड, भाग 1, पृ. 123 86. 'ठाविज्जति' त्ति स्वरूपतः स्थाप्यते प्रज्ञाप्यंत इत्यर्थः / --नन्दीसूत्रचूणि, पृष्ठ 64 87. तिष्ठन्त्यस्मिन प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम्..." स्थानेन स्थाने वा जीवा: स्थाप्यन्ते, व्यवस्थित स्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम् / -नन्दीसूत्र हरिभद्रीया वृत्ति पृ. 79 88. एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणियो। चतुसंकमणाजुत्तो पंचग्गुणप्पहाणो य // छक्कायक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो / अट्रासबो णवट्रो जीवो दसट्राणियो भणियो॥ --कसायपाहुड, भाग-१ पृ-११३ / 64, 65 - [29] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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