________________ 246 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. सर्व अदत्तादान से विरमण। 4. सर्व बाह्य-प्रादान से विरमण (137) / दुर्गति-सुगति-सूत्र १३८–चत्तारि दुग्गतीप्रो पण्णतामो, तं जहा---णेरइयदुग्गती,तिरिक्खजोणियदुग्गती, मणुस्सदुग्गती, देवदुग्गती। दुर्गतियाँ चार प्रकार की कही गई है / जैसे१. नैरयिक-दुर्गति, 2. तिर्यग्-योनिक्-दुर्गति, 3. मनुष्य-दुर्गति, 4. देव-दुर्गति (138) / १३६-चत्तारि सोग्गईओ पण्णत्तानो, तं जहा-सिद्धसोग्गती, देवसोग्गती, मणुयसोग्गती, सुकुलपच्चायाती। सुगतियां चार प्रकार की कही गई हैं / जैसे१. सिद्ध सुगति, 2. देव सुगति, 3. मनुष्य सुगति, 4. सुकुल-उत्पत्ति (136) / १४०-चत्तारि दुग्गता पण्णत्ता, तं जहा--णेरइयदुग्गता, तिरिक्खजोणियदुग्गता, मणुयदुग्गता, देवदुग्गता। दुर्गत (दुर्गति में उत्पन्न होने वाले जीव) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. नैरयिक-दुर्गत, 2. तिर्यग्योनिक-दुर्गत, 3. मनुष्य-दुर्गत, 4. देव-दुर्गत (140) / १४१-चत्तारि सुग्गता पण्णत्ता, तं जहा--सिद्धसुग्गता, जाव [देवसुग्गता, मणुयसुग्गता], सुकुलपच्चायाया। सुगत (सुगति में उत्पन्न होने वाले जीव) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. सिद्धसुगत, 2. देवसुगत, 3. मनुष्यसुगत, 4, सुकुल-उत्पन्न जीव (141) / कमांश-सूत्र १४२--पढमसमयजिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा खोणा भवंति, तं जहा–णाणावरणिज्ज, दसणावरणिज्ज, मोहणिज्ज, अंतराइयं / प्रथम समयवर्ती केवली जिनके चार (सत्कर्म कर्माश-सत्ता में स्थित कर्म) क्षोण हो चुके होते हैं / जैसे--- 1. ज्ञानावरणीय सत -कर्म, 2. दर्शनावरणोय सत्-कर्म, 3. मोहनोय सत्-कर्म, 4. प्रान्तरायिक सत्-कर्म (142) / १४३–उप्पण्णणाणदसणधरे णं अरहा जिणे केवलो चत्तारि कम्मसे वेदेति, तं जहा--वेदणिज्ज, पाउयं, णामं, गोतं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org