________________ चतुर्थ स्थान-प्रथम उद्देश ] [247 उत्पन्न हुए केवलज्ञान-दर्शन के धारक केवली जिन अर्हन्त चार सत्कर्मों का वेदन करते हैं। जैसे 1. वेदनीय कर्म, 2. श्रायु कर्म, 2. नाम कर्म, 4. गोत्र कर्म (143) / १४४--पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं जहा-वेयणिज्ज, आउयं, णाम, गोतं / प्रथम समयवर्ती सिद्ध के चार सत्कर्म एक साथ क्षीण होते हैं / जैसे१. वेदनीय कर्म, 2. आयु कर्म, 3. नाम कर्म, 4. गोत्र कर्म (144) / हास्योत्पत्ति-सूत्र १४५-चहि ठाणेहि हासुप्पत्ती सिया, तं जहा-पासेत्ता, भासेत्ता, सुणेत्ता, संभरेत्ता। चार कारणों से हास्य की उत्पत्ति होती है। जैसे१. देख कर-नट, विदूषक आदि की चेष्टानों को देख करके / 2. बोल कर-किसी के बोलने की नकल करने से / 3. सुन कर-हास्योत्पादक वचन सुनकर / 4. स्मरण कर-हास्यजनक देखी या सुनी बातों को स्मरण करने से (145) / अंतर-सत्र १४६---चरविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा-कटुतरे, पम्हंतरे, लोहंतरे, पत्थरंतरे / एवामेव इत्थीए वा पुरिसस्स वा चउम्विहे अंतरे पण्णते, त जहा-कट्टतरसमाणे, पम्हंतरसमाणे, लोहंतरसमाणे, पत्थरंतरसमाणे / अन्तर चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. काष्ठान्तर--एक काष्ठ से दूसरे काष्ठ का अन्तर, रूप-निर्माण आदि की अपेक्षा से। 2. पक्ष्मान्तर---धागे से धागे का अन्तर, विशिष्ट कोमलता आदि की अपेक्षा से। 3. लोहान्तर-छेदन-शक्ति की अपेक्षा से / 4. प्रस्तरान्तर--सामान्य पाषाण से हीरा-पन्ना आदि विशिष्ट पाषाण की अपेक्षा से / इसी प्रकार स्त्री से स्त्री का और पुरुष से पुरुष का अन्तर भी चार प्रकार का कहा गया है। जैसे 1. काष्ठान्तर के समान-विशिष्ट पद आदि की अपेक्षा से / 2. पक्ष्मान्तर के समान-वचन-मृदुता आदि की अपेक्षा से / 3. लोहान्तर के समान--स्नेहच्छेदन आदि की अपेक्षा से। 4. प्रस्तरान्तर के समान-विशिष्ट गुणों आदि की अपेक्षा से (146) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org