________________ चतुर्थ स्थान–प्रथम उद्देश ] [245 काल-सूत्र १३४–चउबिहे काले पण्णत्त, सं जहा—पमाणकाले, प्रहाउयनिव्वत्तिकाले, मरणकाले, प्रद्धाकाले। काल चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. प्रमाणकाल-समय, पावलिका, यावत् सागरोपम का विभाग रूपकाल / 2. यथायुनिवृत्तिकाल-आयुष्य के अनुसार नरक आदि में रहने का काल / 3. मरण-काल मृत्यु का समय (जीवन का अन्त-काल)। 4. अद्धाकाल-सूर्य के परिभ्रमण से ज्ञात होने वाला काल / पुद्गल-परिणाम-सूत्र १३५-चउविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-धण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे। पुद्गल का परिणाम चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. वर्ण-परिणाम-- श्वेत, रक्त आदि रूपों का परिवर्तन / 2. गन्ध-परिणाम–सुगन्ध-दुर्गन्ध रूप गन्ध का परिवर्तन / 3. रस-परिणाम-आम्ल, मधुर आदि रसों का परिवर्तन / 4. स्पर्श-परिणाम-स्निग्ध, रूक्ष आदि स्पर्शों का परिवर्तन (135) / चातुर्याम-परिणाम-सूत्र १३६-भरहेरवएसु णं वासेसु पुरिम-पच्छिम-बज्जा मज्झिमगा बावीसं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवेति, तं जहा-सव्वानो पाणातिवायानो वेरमणं, एवं सव्वाप्रो मुसावायानो वेरमणं, सव्वानो अदिण्णादाणाश्रो वेरमणं, सव्वानो बहिद्धादाणाम्रो वेरमणं / भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर को छोड़कर मध्यवर्ती बाईस अर्हन्त भगवन्त चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं / जैसे 1. सर्व प्राणातिपात (हिंसा-कर्म) से विरमण / 2. सर्व मृषावाद (असत्य-भाषण) से विरमण / 3. सर्व अदत्तादान (चौर-कर्म) से विरमण / 4. सर्व बाह्य (वस्तुओं के) आदान से विरमण (136) / १३७–सम्वेसु णं महाविवेहेसु अरहता भगवंतो चाउज्जामं धम्म पण्णवयंति, तं जहा--- सव्वाप्रो पाणातिवायाश्रो वेरमणं, जाव [सव्वानो मुसावायाप्रो वेरमणं सव्वानो अदिण्णादाणाम्रो वेरमणं], सव्वानो बहिद्धादाणाप्रो वेरमणं / सभी महाविदेह क्षेत्रों में अर्हन्त भगवन्त चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं जैसे१. सर्व प्राणातिपात से विरमण / 2. सर्व मृषावाद से विरमण / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org