________________ 224] [ स्थानाङ्गसूत्र ६६-धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा--प्राणारुई, णिसगरुई, सुत्तरुई, प्रोगाढरुई। धर्म्यध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे१. आज्ञारुचि-जिन आज्ञा के मनन-चिन्तन में रुचि, श्रद्धा एवं भक्ति होना / 2. निसर्ग रुचि-धर्मकार्यों के करने में स्वाभाविक रुचि होना। 3. सूत्ररुचि आगम-शास्त्रों के पठन-पाठन में रुचि होना। 4. अवगाढ़रुचि-द्वादशाङ्गवाणी के अवगाहन में प्रगाढ़ रुचि होना (66) / ६७--धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि पालंणा पण्णता, त जहा-वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा। धर्म्यध्यान के चार आलम्ब 1. वाचना--आगम-सूत्र आदि का पठन करना / 2. प्रतिप्रच्छना- शंका-निवारणार्थ गुरुजनों से पूछना / 3. परिवर्तन-पठित सूत्रों का पुनरावर्तन करना / 4. अनुप्रेक्षा-अर्थ का चिन्तन करना (67) / ६८-धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाम्रो पण्णतामो, त जहा- एगाणुप्पेहा, अणिच्चागुप्पेहा, प्रसरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा / धर्म्यध्यान की चार अनुप्रक्षाएं कही गई हैं, जैसे - 1. एकात्वानुप्रेक्षा--जीव के सदा अकेले परिभ्रमण और सुख-दुःख भोगने का चिन्तन करना। 2. अनित्यानुप्रेक्षा–सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता का चिन्तन करना। 3. अशरणानुप्रेक्षा जीव को कोई दूसरा-धन परिवार आदि शरण नहीं, ऐसा चिन्तन करना। 4. संसारानुप्रेक्षा-चतुर्गति रूप संसार की दशा का चिन्तन करना (68) / विवेचन-शास्त्रों में धर्म के स्वरूप के पांच प्रकार प्रतिपादन किये गये हैं.---१. अहिंसालक्षण धर्म 2. क्षमादि दशलक्षण धर्म 3. मोह तथा क्षोभ से विहीन परिणामरूप धर्म 4. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म और 5. वस्तुस्वभाव धर्म / उक्त प्रकार के धर्मों के अनुकल प्रवर्तन करने को धर्म्य कहते हैं। धर्म्यध्यान की सिद्धि के लिए वाचना आदि चार आलम्बन या आधार बताये गये हैं और उसको स्थिरता के लिए एकत्व आदि चार अनुप्रक्षाएं कही गई हैं। उस धर्म्यध्यान के आज्ञाविचय आदि चार भेद हैं। और आज्ञारुचि आदि उसके चार लक्षण कहे गये हैं / आत और रौद्र इन दोनों दुानों से उपरत होकर कषायों की मन्दता से शुभ अध्यवसाय या शुभ उपयोगरूप पुण्यकर्म-सम्पादक जितने भी कार्य हैं, उन सब को करना, कराना और अनुमोदन करना, शास्त्रों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org