________________ चतुर्थ स्थान--प्रथम उद्देश ] [225 पठन-पाठन करना, व्रत, शील और समय का परिपालन करना और करने के लिए चिन्तन करना धर्म्यध्यान है। किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि इन सब कर्तव्यों का अनुष्ठान करते समय जितनी देर चित्त एकाग्र रहता है, उतनी देर ही ध्यान होता है। छद्मस्थ का ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ही टिकता है, अधिक नहीं। . ६६--सुक्के झाणे चउविहे चउप्पडोसारे पण्णत्ते, त जहा-पुत्तवितक्के सवियारी, एगत्तवितक्के प्रवियारी, सुहुमकिरिए अणियट्टो, समुच्छिण्णकिरिए अप्पडिवाती। (स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा इन) चार पदों में अवतरित शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे 1. पृथक्त्ववितर्क सविचार, 2. एकत्ववितर्क अविचार, 3. सूक्ष्मक्रिय-अनिवृत्ति और 4. समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति (66) / विवेचन--जब कोई उत्तम संहनन का धारक सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त संयत मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण करने के लिए उद्यत होता है और प्रति-समय अनन्त गुणी विशुद्धि से प्रवर्धमान परिणाम वाला होता है, तब वह अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्रवेश करता है / वहां पर शुभोपयोग की प्रवृत्ति दूर होकर शुद्धोपयोगरूप वीतराग परिणति और प्रथम शुक्लध्यान प्रारम्भ होता है, जिसका नाम पृथक्त्ववितर्क सविचार है। बितर्क का अर्थ है-भाव त के आधार से द्रव्य, गुण और पर्याय का विचार करना / विचार का अर्थ है- अर्थ व्यंजन और योग का परिवर्तन / जब ध्यानस्थित साधु किसी एक द्रव्य का चिन्तन करता-करता उसके किसी एक गुण का चिन्तन करने लगता है और फिर उसी को किसी एक पर्याय का चिन्तन करने लगता है, तब उसके इस प्रकार पृथक्-पृथक् चिन्तन को पृथक्त्ववितर्क कहते हैं। जब वही संयत अर्थ से शब्द में और शब्द से अर्थ के चिन्तन में संक्रमण करता है और मनोयोग से वचनयोग का और वचनयोग से काययोग का आलम्बन लेता है, तब वह सविचार कहलाता है। इस प्रकार वितर्क और विचार के परिवर्तन और संक्रमण की विभिन्नता के कारण इस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क सविचार कहते हैं / यह प्रथम शुक्लध्यान चतुर्दश पूर्वधर के होता है और इसके स्वामी आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती संयत हैं / इस ध्यान के द्वारा उपशम श्रेणी पर आरूढ़ संयत दशवें गुणस्थान में पहुँच कर मोहनीय कर्म के शेष रहे सूक्ष्म लोभ का भी उपशम कर देता है, तब वह ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान को प्राप्त होता है और जब क्षपकश्रेणो पर आरूढ़ संयत दशवें गुणस्थान में अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ का क्षय करके बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है, तब वह क्षीणमोह क्षपक कहलाता है / 2. एकत्व-वितर्क अविचार शुक्लध्यान-बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोही क्षपक-साधक की मनोवृत्ति इतनी स्थिर हो जाती है कि वहाँ न द्रव्य, गुण, पर्याय के चिन्तन का परिवर्तन होता है और न अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) और योगों का ही संक्रमण होता है। किन्तु वह द्रव्य, गुण या पर्याय में से किसी एक के गम्भीर एवं सूक्ष्म चिन्तन में संलग्न रहता है और उसका वह चिन्तन किसी एक अर्थ, शब्द या योग के आलम्बन से होता है। उस समय वह एकाग्रता की चरम कोटि पर पहुँच जाता है और इसी दूसरे शुक्लध्यान को प्रज्वलित अग्नि में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org