SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ स्थान-प्रथम उद्देश] [223 आर्तध्यान है। तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में निदान को भी प्रात्त ध्यान के भेदों में गिना है। यहां वणित चौथे भेद को वहां दूसरे भेद में ले लिया है। जब दुःख आदि के चिन्तन में एकाग्रता आ जाती है तभी वह ध्यान की कोटि में आता है / ६३–रोद्दे झाणे चउब्विहे पण्णत्ते, त जहा-हिंसाणुबंधि, मोसाणुबंधि, तेणाणुबंधि, सारक्खणाणुबंधि। रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-- 1. हिंसानुबन्धी--निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता कराने वाली चित्त की एकाग्रता / 2. मृषानुबन्धी--असत्य भाषण सम्बन्धी एकाग्रता। 3. स्तेनानुबन्धी--निरन्तर चोरी करने-कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी एकाग्रता / 4. संरक्षणानुबन्धी - परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी तन्मयता (63) / ६४-रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, त जहा-पोसण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणदोसे, प्रामरणंतदोसे / रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे---- 1. उत्सन्नदोष--हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति करना / 2. बहुदोष-हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न करना / 3. अज्ञानदोष-कुशास्त्रों के संस्कार से हिंसादि अधार्मिक कार्यों को धर्म मानना / 4. आमरणान्त दोष–मरणकाल तक भी हिंसादि करने का अनुताप न होना (64) / विवेचन-निरन्तर रुद्र या क्र र कार्यों को करना, आरम्भ-समारम्भ में लगे रहना, उनको करते हुए जीव-रक्षा का विचार न करना, झूठ बोलते और चोरी करते हुए भी पर-पीड़ा का विचार न करके आनन्दित होना.ये सर्व रौद्रध्यान के कार्य कहे गये हैं। शास्त्रों में आत ध्यान को तिर्यग्गति का कारण और रौद्रध्यान को नरकगति का कारण कहा गया है। ये दोनों ही अप्रशस्त या अशुभध्यान हैं। ६५-धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, त जहा-प्राणाविजए, अवायविजए, विवागविजए, संठाणविजए। (स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और अनुपेक्षा इन) चार पदों में अवतरित धर्म्यध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे 1. आज्ञाविचय-जिन-आज्ञा रूप प्रवचन के चिन्तन में संलग्न रहना। 2. अपायविचय-संसार-पतन के कारणों का विचार करते हुए उनसे बचने का उपाय करना। 3. विपाकविचय--कर्मों के फल का विचार करना / 4. संस्थानविचय -जन्म-मरण के आधारभूत पुरुषाकार लोक के स्वरूप का चिन्तन करना (65) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy